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समणसुत्तं.
अ. १ : ज्योतिर्मुख
१८.जिणवयणमोसहमिणं,
विसयसह-विरेयणं अमिदभयं। जरमरणवाहिहरणं,
खयकरणं सव्वदुक्खाणं॥
यह जिनवचन विषयसुख का विरेचन, जरा-मरणरूपी व्याधि का हरण तथा सब दुःखों का क्षय करनेवाला अमृततुल्य औषध है।
जा जर
१९.अरहंतभासियत्थं, गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म।
पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोदहिं सिरसा।।
जो अर्हत् के द्वारा अर्थरूप में उपदिष्ट है तथा गणधरों के द्वारा सूत्ररूप में सम्यक् गुंफित है, उस श्रुतज्ञानरूपी महासिन्धु को मैं भक्तिपूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं।
२०.तस्स मुहुग्गंदवयणं,
पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं। आगममिदि परिकहियं,
तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था॥
अर्हत् के मुख से उद्भूत, पूर्वापरदोष-रहित शुद्ध वचनों को आगम कहते हैं। उस आगम में जो कहा गया है वह यथार्थ है।
२१.जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेण। ... अमला असंकिलिह, ते होति परित्तसंसारी॥
जो जिनवचन में अनुरक्त हैं तथा जिनवचनों का भावपूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और असंक्लिष्ट होकर परीत-संसारी (अल्प जन्म-मरणवाले) हो जाते हैं।
२२.जय वीयराय ! जयगुरू! -
- होउ मम तुह पभावओ भयवं! भवणिव्वेओ मग्गाणुसारिया
इट्ठफलसिद्धी॥
हे वीतराग!, हे जगद्गुरु! हे भगवन! आपके प्रभाव से मुझे संसार से विरक्ति, मोक्षमार्ग का अनुसरण तथा इष्टफल की प्राप्ति होती रहे।
२३.ससमय-परसमयविऊ,
जो स्वसमय व परसमय का ज्ञाता है, गंभीर, . .. गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो।। दीप्तिमान, कल्याणकारी और सौम्य है तथा सैकड़ों गुणों गुणसयकलिओ जुत्तो,
से युक्त है, वही निग्रंथ प्रवचन के सार को कहने का पवयणसारं परिकहेउं॥ अधिकारी है।
२४.जं इच्छसि अप्पणतो,जं च ण इच्छसि अप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं॥
दूसरों के लिए वही चाहो जो तुम अपने लिए चाहते हो। जो तुम अपने लिए नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी न चाहो। यह जिनशासन है-तीर्थंकर का उपदेश है।
संघ सूत्र
. संघ सूत्र
२५.संघो गुणसंघाओ, संघो य विमोचओ य कम्माणं।
दसणणाणचरित्ते, संघायंतो हवे संघो॥
गुणों का समूह संघ है। संघ कर्मों का विमोचन करनेवाला है। जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संघात (रत्नत्रय की समन्विति) करता है, वह संघ है।