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आत्मा का दर्शन ६५२
खण्ड-५ ९. पंचमहव्वयतुंगा,तक्कालिय-सपरसमय-सुदधारा। पंच महाव्रतों से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और णाणागुणगणभरिया, आइरिया मम पसीदंतु॥ परसमय रूप श्रुत के ज्ञाता तथा नाना गुणसमूह से
परिपूर्ण आचार्य मुझ पर प्रसन्न हों।
१०.अण्णाणघोरतिमिरे, दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं।
भवियाणुज्जोययरा, उवज्झाया वरमिदं देंतु॥
जिसका अंत पाना कठिन है, उस अज्ञानरूपी घोर अंधकार में भटकनेवाले भव्य जीवों के लिए ज्ञान का प्रकाश देनेवाले उपाध्याय मुझे उत्तम वर दें।
११.थिरधरियसीलमाला, ववगयराया जसोहपडिहत्था।
बहुविणयभूसियंगा, सुहाइं साहू पयच्छंतु॥
शीलरूपी माला को स्थिरतापूर्वक धारण करनेवाले, राग-रहित, यशःसमूह से परिपूर्ण तथा प्रवर विनय से अलंकृत शरीर वाले साधु मुझे सुख प्रदान करें।
१२.अरिहंता असरीरा, आयरिया, उवल्झाय मुणिणो।
पंचक्खरनिप्पण्णो, ओंकारो पंच परमिट्ठी॥
अर्हत् अशरीरी (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय तथा' मुनि-इन पांचों के प्रथम पांच अक्षरों (अ+अ+आ+उ+ म्) को मिलाकर ॐ (ओंकार) बनता है जो पंच-परमेष्ठी का वाचक है-बीजरूप है।
१३.उसहमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च समुइं च।
पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वदे॥
मैं १. ऋषभ, २. अजित, ३. सम्भव, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति, ६. पद्मप्रभ, ७. सुपार्श्व तथा चन्द्रप्रभ को वन्दन करता हूं।
१४. सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयंस वासुपुज्जं च।
विमलमणंत-भयवं, धम्म संतिं च वंदामि॥
मैं ९. सुविधि (पुष्पदन्त), १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शांति को वंदन करता हूं।
१५.कुंथु च जिणवरिंद, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमि।
वंदामि रिठ्ठणेमि, तह पासं वहृमाणं च॥
मैं १७. कुन्थु, १८. अर, १९. मल्लि , २०. मुनिसुव्रत, २१. नमि, २२. अरिष्टनेमि, २३. पार्श्व तथा २४. वर्धमान को वन्दन करता हूं।
१६.चदेहि णिम्मलयरा, आइच्चेहिं अहियं पयासंता।
सायरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥
चन्द्र से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रकाश करनेवाले, सागर की भांति गंभीर सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि (मुक्ति) प्रदान करें।
जिनशासन सूत्र
जिनशासन सूत्र
१७.जमल्लीणा जीवा, तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं, गंददु जिणसासणं सुइरं॥
जिसमें लीन होकर जीव अनन्त संसार-सागर को पार कर जाते हैं तथा जो समस्त जीवों के लिए-शरणभूत है, वह जिनशासन चिरकाल तक समृद्ध रहे। .