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________________ आत्मा का दर्शन ४२० खण्ड-४ असाहुसु साहुसण्णा। साहुसु असाहुसण्णा। अमुत्तेसु मुत्तसण्णा। मुत्तेसु अमुत्तसण्णा। असाधु में साधु की संज्ञा। साधु में असाधु की संज्ञा। अमुक्त में मुक्त की संज्ञा। मुक्त में अमुक्त की संज्ञा। . सम्यक्त्व की महत्ता ८. नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहणं दसणे उ भइयव्वं। सम्मत्तचरित्ताई जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं॥ सम्यक्त्व के बिना चारित्र का विकास नहीं होता, यह एक नियम है। सम्यक्त्व अवस्था में चारित्र का विकल्प है-वह हो भी सकता है और नहीं भी। सम्यक्त्व और चारित्र एक साथ उत्पन्न होते हैं और जहां वे एक साथ उत्पन्न नहीं होते, वहां पहले सम्यक्त्व होता है। ९. नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नेत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥ सम्यक्त्व के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता। चारित्र के बिना मुक्ति नहीं होती। मुक्ति के बिना निर्वाण नहीं होता। सम्यक्त्व के अंग १०.निस्संकिय निक्कंखिय सम्यक्त्व के आठ अंग हैनिवितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। १. निःशंकित : शंका न होना। उववूह थिरीकरणे २. निष्कांक्षित : कांक्षा न होना। वच्छल्ल पभावणे अट्ठ॥ ३. निर्विचिकित्सित : चित्त-विप्लव न होना। ४. अमूढदृष्टि : दृष्टि की मूढ़ता न होना। ५. उपबृंहण : सद्गुणों को बढ़ावा देना। ... ६. स्थिरीकरण : सम्यक्दर्शन में स्थिर करना। ७. वात्सल्य : सम्यकदर्शनी/साधर्मिक के प्रति वत्सलता का भाव रखना। ८. प्रभावना : धर्मसंघ की प्रभावना करना। निःशंकिता ११. जिणवरभासियभावेसु भावसच्चेसु भावओ मइम। मतिमान मनुष्य अर्हत् द्वारा भाषित सत्य भावोंनो कुज्जा संदेहं सदेहोऽणत्थहेउ ति॥ पदार्थों में संदेह न करे। संदेह अनर्थ का हेतु है, इसलिए संदेह मुक्त रहे। १२.निसंदेहत्तं पुण, गुणहेउं जं तओ तयं कज्ज। एत्थं दो सेठिसुया अंडयगाही उदाहरणं॥ निःसंदेह होना गुण को बढ़ावा देना है। अतः मनुष्य सदा सत्य भावों के प्रति असंदिग्ध रहे। भगवान ने श्रद्धा और अश्रद्धा का मर्म सेठ/सार्थवाह के दो पुत्रों के उदाहरण से समझाया है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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