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________________ प्रायोगिक दर्शन ४२१ अ. २ : सम्यग्दर्शन सार्थवाह पुत्र और मयूरी के अंडे १३.तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। चम्पा नाम की नगरी। उस नगरी के बाहर तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे ईशानकोण में सुभूमिभाग नाम का उद्यान। वह सब दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे सव्वोउय- ऋतुओं में होने वाले फूलों और फलों से समृद्ध तथा पुप्फ-फल-समिद्धे सुरम्मे नंदणवणे इव सुह- सुरम्य था। नन्दनवन के समान सुखकर, सुरभित और सुरभि-सीयलच्छायाए समणुबद्धे। शीतल छाया देने वाला था। तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में एक प्रदेश में एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था। मालुकाकच्छ था। तत्य णं एगा वणमयूरी दो पुढे परियागए वहां एक वनमयूरी ने दो अंडे दिए। वे अंडे पुष्ट और पिठंडी-पंडुरे निव्वणे. निरुवहए भिण्ण- परिपूर्ण थे। चावलों की पिंडी जैसे उजले थे। उनमें कहीं मुठ्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडाए पसवइ, पसवित्ता सएणं छेद नहीं था। कोई खरोंच नहीं थी। वे बन्द मुट्ठी जितने पखवाएणं सारक्खमाणी. संगोवेमाणी बड़े थे। वनमयूरी उन अंडों को अपनी पांखों से ढककर संविठेमाणी विहरइ।. . सेने लगी। पालन, संगोपन और पोषण करने लगी। तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्थवाहदारगा उस चम्पानगरी में दो सार्थवाहपुत्र रहते थे। एक था परिवसंति, तं जहा-जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते जिनदत्त-पुत्र और दूसरा था सागरदत्त-पुत्र। वे दोनों ही य-सहजायया सहवड्ढियया सहपंसुकीलियया साथ-साथ जनमे, साथ-साथ बड़े हुए, साथ-साथ खेले, सहदारदरिसी अण्णमणुरत्तया अण्णमण्णमणुव्वयया साथ-साथ विवाहित हुए। दोनों ही एक दूसरे में अनुरक्त अण्णमण्णच्छंदाणुवत्तया अण्णमण्णहिय-इच्छिय. थे। एक दूसरे का अनुगमन करते थे। एक दूसरे की इच्छा कारया अण्णमण्णेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाई का अनुवर्तन करते थे। एक दूसरे की इच्छा को पूर्ण करते पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। थे। दोनों अपने करणीय कार्यों को एक दूसरे के घर सम्पादित करते हुए रह रहे थे। तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अण्णया कयाई एक दिन वे सार्थवाहपुत्र एक स्थान पर बैठे थे। वे एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं परस्पर बात करने लगे-देवानुप्रिय! हमारे सामने सुख या • सण्णिविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे दुःख, परिव्रजन या विदेश-गमन का कोई भी प्रसंग आएसमुप्पज्जित्था-जण्णं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा हमें मिलजुल कर एक साथ उसको पूरा करना है। हम यह दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, प्रतिज्ञा करते हैं। इस प्रकार प्रतिज्ञा कर वे अपने-अपने तण्णं अम्हेहिं एगयओ समेच्चा नित्थरियव्वं ति काम में जुट गए। कटु अण्णमण्णमेयारूवं संगारं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। तए पां ते सत्थवाहदारगा जेणेव से मालुयाकच्छए एक दिन सार्थवाह पुत्र मालुकाकच्छ गए। तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं सा वणमयूरी ते सत्यवाहदारए एज्जमाणे वनमयूरी ने उन्हें आते देखा। उन्हें देखते ही वह डरी, पासइ, पासित्ता भीया तत्था महया महया सद्देणं सहमी-सी ऊंचे स्वर से केकास्व करती हुई मालुकाकेकारखं विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी कच्छ से बाहर निकल गई व एक वृक्ष की डाल पर बैठ मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता उन सार्थवाह-पुत्रों और मालुका-कच्छ को अनिमेष दृष्टि • एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्थवाहदारए से निहारने लगी।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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