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आत्मा का दर्शन
मालुयाकच्छगं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेच्छमाणी चिट्ठा ।
तए णं ते सत्थवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी - जहा णं देवाणुप्पिया ! एसा वणमयूरी अम्हे एज्जमाणे पासित्ता भीया तत्था सिया उब्विग्गा पलाया महया - महया सदेणं केकारवं विणिम्मुयमाणी - विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा अम्हे मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेच्छमाणी चिट्ठइ ।
तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं ति कट्टु मालुयाकच्छयं अंतो अणुप्पविसंति। तत्थ णं दो पुट्ठे परियागए पिट्टुंडी - पंडुरे निव्वणे, निरुवह भिण्णमुप्पमाणे मयूरी - अंड पासित्ता अण्णमण्णं सहावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी - सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमे वणमयूरी - अंडए साणं जातिमंताणं कुक्कुडियाणं अंडएस पक्खिवावित्तए । तणं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ एए अंडए स य अंडएसएणं पंखवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति ।
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तणं अम्हं एत्थं दो कीलावणगा मयूरीपोयगा भविस्संति त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिसुणेंति, पडिसुणेत्ता सएसए दासचेडए सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाप्पिया ! इमे अंडए गहाय सगाणं जातिमंताणं कुक्कुडीणं अंडएसु पक्खिवह जाव ते वि पक्खिवेंति ।
तत्थ णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए से णं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव से वणमूयरी - अंड तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सि मयूरी - अंडयंसि संकिए कंखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे ravi ममं एत्थ कीलावणए मयूरी - पोयए भविस्सइ उदाहु नो भविस्स त्ति कट्टु तं मयूरी अंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं उव्वत्तेइ परियत्तेइ
खण्ड - ४
उस समय सार्थवाहपुत्र एक दूसरे को कहने लगेदेवानुप्रिय ! यह वनमयूरी हमें इधर आते देखकर डरीसहमी-सी उद्विग्न हो यहां से चली गई। अब यह ऊंचे स्वर में केकारव करती हुई मालुका- कच्छ से बाहर निकली है। वह एक वृक्ष की डाल पर बैठ हमें और मालुकाकच्छ को अनिमेष दृष्टि से निहार रही है।
यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए ऐसा सोच उन्होंने मालुकाकच्छ के भीतर प्रवेश किया। वहां उन्होंने मयूरी के अंडे देखे । वे पुष्ट और परिपूर्ण थे। चावलों की पिंडी जैसे उजले थे। उनमें कहीं छेद नहीं था। कोई खरोंच नहीं थी। वे बन्द मुट्ठी जितने बड़े थे। उन अंडों को देख वे एक दूसरे को कहने लगे - देवानुप्रिय ! हम इन वन-मयूरी
अंडों को अपनी जाति सम्पन्न मुर्गियों के अंडों के साथ रख दें। ऐसा करने से वे जाति-सम्पन्न मुर्गियां इन अंडों का और अपने अंडों को अपनी पांखों से ढककर सेने लगेंगी। पालन, संगोपन और पोषण करने लगेंगी।
इन अंडों से निष्पन्न मयूरी के दो बच्चे हमारी क्रीड़ा के साधन बन जायेंगे। उन्होंने एक दूसरे के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया और कहा- देवानुप्रियो ! तुम इन अंडों को लेकर जाओ और अपनी जाति-सम्पन्न मुर्गियों के अंडों के साथ रख दो। दासपुत्रों ने आज्ञा का पालन किया ।
सार्थवाह सागरदत्तपुत्र प्रातः काल वनमयूरी के अंडे को देखने आया । वह मयूरी के अंडे के प्रति शंका, कांक्षा और विचिकित्सा से भर गया। इस अंडे से मेरा क्रीडासाधन- मयूरी का बच्चा होगा अथवा नहीं होगा ? ऐसा सोच वह उसे अंडे को बार-बार उलटने पलटने लगा। इधर-उधर खिसकाने लगा । हिलाने-डुलाने लगा, छूने लगा, चलाने लगा और कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाने लगा।