SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रायोगिक दर्शन ४२३ आसारेइ संसारेइ चालेइ फंदेइ घट्टेइ खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्ठियावे । तए णं से मयूरी - अंडए अभिक्खणं- अभिक्खणं उव्वत्तिज्जमाणे परियत्तिज्जमाणे आसारिज्जमाणे संसारज्जमाणे चालिज्जमाणे फंदिज्जमाणे घट्टिज्जमा खोभिज्जमा अभिक्खणंअभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टिया - वेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था । तणं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अण्णया कयाई जेणेव से मयूरी - अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मयूरी अंडयं पोच्चडमेव पासइ, अहो णं ममं एत्थ कीलावणए मयूरी- पोयए न जाए त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियाइ । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निम्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएंसु निग्गंथे पावयणे संकिए कंखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाणं य हीलणिज्जे ....... परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि । बहूणं दारिद्दाणं बहूणं 'दोहग्गाणं..... अभागी भविस्सति । अणादियं च णं अणवयम्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं भुज्जो - भुज्जो अणुपरियटिस्सइ । तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मयूरी - अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरीअंडयंसि निस्संकिए निक्कंखिए निव्वितिगिंछे सुव्वत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मयूरी - पोयए भविस्स त्ति कट्टु तं मयूरी अंडयं अभिक्खणंअभिक्खणं नो उव्वत्तेइ नो परियत्तेइ नो आसारेइ नो संसारेइ नो चालेइ नो फंदेइ नो घट्टेइ नो खोइ अभिक्खणं- अभिक्खणं कण्णमूलंसि नो टिट्ठियावेइ । तए णं से मयूरी - अंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे कालेणं समएणं उब्भिन्ने अ. २ : सम्यग्दर्शन इस प्रकार बार-बार उलटने, पलटने, सरकाने, दूर तक सरकाने, हिलाने, छूने, क्षुभित करने और कान के पास ले जाकर बार-बार बजाने से वह मयूरी का अंडा सारहीन हो गया। एक दिन सार्थवाह सागरदत्तपुत्र मयूरी के अंडे के पास आया। उसे सारहीन हुआ देख सोचने लगा- अहो ! इसमें से मेरा क्रीडासाधन- मयूरी का बच्चा उत्पन्न नहीं हुआ । वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबा हुआ चिंतामग्न हो गया । आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो निर्ग्रथ और निग्रंथी आचार्य, उपाध्याय के पास मुंड हो, अगार से अनगार धर्म में प्रव्रजित हो, पांच महाव्रतों, षड्जीव- निकायों और निर्ग्रथ प्रवचन में शंका, कांक्षा और विचिकित्सा करता है, दुविधा में रहता है, उन्हें दोषपूर्ण मानता है वह इस जीवन बहुत श्रमण-श्रमणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं द्वारा निंदनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और भवनीय होता है। उसे परलोक में भी अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करना होता है। वह बार-बार दरिद्रता और दुर्भाग्य को प्राप्त होगा। अनादि, अनंत, प्रलंबमार्ग तथा चातुरंत संसार कान्तार में पुनः पुनः अनुपरिवर्तन करेगा। जिनदत्तपुत्र मयूरी अंडे के पास आया। उसे मयूरी के अंडे के प्रति कोई शंका, कांक्षा और विचिकित्सा नहीं हुई। इस अंडे से मेरा क्रीडासाधन- मयूरी का बच्चा होगा, ऐसा निश्चय कर उस मयूरी के अंडे को न बार-बार उलटता है, न पलटता है, न सरकाता है, न चलाता है, न हिलाता है, न छूता है, न क्षुभित करता है और न कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाता है। बार-बार छेड़छाड़ न करने के कारण वह मयूरी का अंडा फटा और उससे बच्चा उत्पन्न हुआ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy