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________________ प्रायोगिक दर्शन ४८५ अ. ५ : ज्ञान-क्रिया-समन्वय कहं णं भंते! खलवाडे पुब्विं रमणिज्जे भवित्ता भंते! खलियान पहले रमणीय फिर अरमणीय कैसे हो पच्छा अरमणिज्जे भवति? जाता है? पएसी! जया णं खलवाडे उच्छुब्भइ उडुइज्जइ प्रदेशी! खलियान में जब धान्य रखा जाता है, कूटा मलइज्जइ पुणिज्जइ खज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया जाता है, मर्दन किया जाता है, पवन किया जाता है, खाया णं खलवाडे रमणिज्जे भवति। जया णं खलवाडे जाता है, पीया जाता है, दिया जाता है, तब वह रमणीय णो उच्छुब्भइ णो उडुइज्जइ णो मलइज्जइ नो होता है। जब वहां धान्य न रखा जाता है, न कूटा जाता पुणिज्जइ नो खज्जइ णो पिज्जइ णो दिज्जइ, तया है, न मर्दन किया जाता है, न पवन किया जाता है, न णं खलवाडे अरमणिज्जे भवति। खाया जाता है, न पीया जाता है, न दिया जाता है तब खलियान अरमणीय हो जाता है। से तेणठेणं पएसी! एवं वुच्चइ-मा णं तुमं प्रदेशी ! इसलिए मैंने कहा-तुम वनखंड, नाट्यशाला, पएसी! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे इक्षवाटक और खलियान की तरह पहले रमणीय फिर भविज्जासि। जहा से वणसंडेइ वा णट्टसालाइ अरमणीय मत बन जाना। वा, इक्खुवाडेइ वा खलवाडेइ वा। तए णं पएसी केसिं कुमारसमणं एवं वयासी-णो प्रदेशी ने कुमारश्रमण केशी से कहा-भंते! मैं खलु भंते! अहं पुट्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा वनखंड, नाट्यशाला, इक्षुवाटक और खलवाटक की तरह अरमणिज्जे भविस्सामि, जहा से वणसंडेइ वा । पहले रमणीय हो फिर अरमणीय नहीं बनूंगा। मैं णसालाइ वा, इक्खुवाडेइ वा, खलवाडेइ वा।। श्वेतविका नगरी सहित सात हजार ग्रामों को चार भागों अहं णं सेयवियापामोक्खाई ‘सत्तगामसहस्साइं में विभक्त करूंगा। एक भाग सेना को सौंप दूंगा। एक चत्तारि भागे करिस्सामि-एगं भागं बलवाहणस्स भाग भंडार के लिए सुरक्षित रखूगा। एक भाग अंतःपुर के दलइस्सामि। एगं भागं कोठागारे छुभिस्सामि। लिए रखूगा। एक भाग से एक विशाल कूटाकारशाला एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि, एगेणं भागेणं बनाऊंगा। वहां अनेक वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा विपुल महतिमहालियं कूडागारसालं करिस्सामि। तत्थ णं । अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार कराऊंगा। वहां बहुत से बहूहिं पुरिसेहिं दिण्णभइ-भत्तवेयणेहिं विउलं असणं । श्रमणों, माहणों, भिक्षुओं और राहगीरों को भोजन .पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता बहूणं समण- वितरित करता हुआ मैं शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, माहण-भिक्खुयाणं पंथिय-पहियाणं परिभाएमाणे, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से अपने को भावित करता बहूहिं सीलव्वय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण- हुआ रहूंगा। पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणे विहरिस्सामि। आचारणशून्य ज्ञान की व्यर्थता चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त १९.जाईपराजिओ खलु जाति से पराजित हुए संभूत ने हस्तिनापुर में निदान कासि नियाणं तु हत्थिणपुरम्मि। (चक्रवर्ती होऊ-ऐसा संकल्प) किया। वह पद्मगुल्म नाम चुलणीए बम्भदत्तो के विमान में देव बना। वहां से च्युत होकर चुलनी की उववन्नो पउमगुम्माओ॥ कोख में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में उत्पन्न हुआ।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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