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________________ आत्मा का दर्शन ४८४ आचरणयुक्त ज्ञान की सार्थकता १८. तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी - माणं तुमं पएसी ! पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि, जहा से वणसंडेह वा, णट्टसालाइ वा इक्खुवाडेइ वा, खलवाडेइ वा। कहं णं भंते! वणसंडे पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवति ? पएसी ! जया णं वणसंडे पत्तिए पुप्फिए फलिए हरियगरेरिज्जमाणे चिट्ठइ तया णं वणसंडे रमणिज्जे भवति । जया णं वणसंडे नो पत्तिए नो पुप्फिए नो फलिए नो हरियगरेरिज्जमाणे णो सिरीए अईव - अईव उवसोभेमाणे चिट्ठई तया णं जुण्णे झडे परिसडिय - पंडुपत्ते सुक्करुक्खे इव मिलायमाणे चिट्ठइ, तया णं वणसंडे णो रमणिज्जे भवति । कहं णं भंते! णट्टसाला पुव्विं रमणिज्जा भवित्ता पच्छा अरमणिज्जा भवति ? पएसी ! जया णं णट्टसाला गिज्जइ वाइज्जइ नच्चिज्जइ अभिणिज्जइ हसिज्जइ रमिज्जइ, तया णं णट्टसाला रमणिज्जा भवइ । जया णं णट्टसाला णो गिज्जइ णो वाइज्जइ णो नच्चिज्जइ णो अभिणिज्जइ णो हसिज्जइ णो रमिज्जइ, तया णं णट्टसाला अरमणिज्जा भवइ । कहं णं भंते! इक्खुवाडे पुव्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवति ? कहं णं भंते! इक्खुवाडे पुव्विं रमणिज्जा भवित्ता पच्छा अमरणिज्जा भवति ? पएसी ! जया णं इक्खुवाडे छिज्जइ भिज्जइ लुज्जइ खज्जइ पिज्जइ दिज्जइ तया णं इक्खुवाडे रमणिज्जे भवइ । जया णं इक्खुवाडे णो छिज्जइ णो भिज्जइ णो लुज्जइ णो खज्जइ णो पिज्जइ णो दिज्जइ, तया णं इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ । खण्ड-४ पंगु के पास दृष्टि थी और अंधे के पास पैर थे। दोनों मिलकर कुशलता से नगर में पहुंच गए। प्रदेशी ! अब तुम रमणीय हो गए हो, पुनः अरमणीय मत हो जाना, जैसे - वनखंड, नाट्यशाला, इक्षुवाटक और खलियान होते हैं। भंते! वनखंड पहले रमणीय, फिर अरमणीय कैसे हो जाता है ? प्रदेशी ! जैसे वनखंड पत्तों, फूलों, फलों, सघन हरीतिमा और वनश्री से अतीव अतीव शोभित होता है। तब रमणीय होता है। जब उसके पत्ते गिर जाते हैं, फूल मुरझा जाते हैं, फल गिर जाते हैं, हरियाली सूख जाती है, वनश्री से शोभित नहीं होता है तब वनखंड जीर्ण-शीर्ण, पत्रशून्य, सूखे वृक्ष की भांति म्लान हो जाता है। फिर वह रमणीय नहीं रहता। भंते! नाट्यशाला पहले रमणीय, फिर अरमणीय कैसे हो जाती है ? प्रदेशी ! नाट्यशाला में जब गीत गाए जाते हैं, वाद्य बजते हैं, नृत्य होता है, अभिनय किया जाता है, हास्य क्रिया (विदूषक कर्म) होती है, क्रीड़ा होती है तब वह रमणीय होती है। जब न गीत गाए जाते हैं, न वाद्य बजते हैं, न नृत्य होता है, न अभिनय किया जाता है, न हास्य होता है और न क्रीड़ा होती है तब नाट्यशाला अरमणीय हो जाती है। भंते! इक्षुवाटक पहले रमणीय, फिर अरमणीय कैसे हो जाता है ? प्रदेशी ! इक्षुवाटक में जब ईख छेदा जाता है, भेदा जाता है, पेरा जाता है, खाया जाता है, पीया जाता है और दिया जाता है तब वह रमणीय होता है। जब इक्षुवाटक में ईख न छेदा जाता है, न भेदा जाता है, न पेरा जाता है, न खाया जाता है और न पीया जाता है तब इक्षुवाटक अरमणीय हो जाता हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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