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________________ प्रायोगिक दर्शन ४८३ अ.५: ज्ञान-क्रिया-समन्वय दौड़ता हुआ भी आग की चपेट में आ जाता है। अंध और पंगु १४.एगंमि महाणगरे पलीवणं संवुत्तं। तंमि य अणाहा दुवे जणा पंगलो य अंधलो य। ते णगरलोए लणसंभमभंतलोयणे पलायमाणे। पासंतो पंगुलओ गमणकिरियाऽभावाओ जाणओऽवि पलायणमग्गं कमागएण अगणिणा दड्ढो। पोऽवि गमणकिरियाजत्तो पलामणमग्गम- जाणतो तुरितं जलणंतेण गंतुं अगणिभरियाए खाणीए.परिऊण दड्ढो। एक महानगर में आग लग गई। वहां दो अनाथ व्यक्ति रहते थे-एक पंगु और दूसरा अंधा। अग्नि से भयभीत हए नागरिक-जन अपने-अपने बचाव के लिए दौड़ने लगे। पंगु व्यक्ति उन्हें दौडते हुए देख रहा था, पर वह दौड़ने में असमर्थ था। वह बचाव का रास्ता जानता था, पर पंगु होने के कारण चल नहीं सका। आग में जल गया। अंध व्यक्ति दौड़ता हुआ अग्निकुंड में जा गिरा। वह बचाव का मार्ग देख नहीं पा रहा था। १५.सजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नहु एगचक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा॥ दो का संयोग मिलने पर ही कार्य की निष्पत्ति होती है। एक चक्के से रथ नहीं चलता। जंगल में अंधा और पंगु मिल गए तो परस्पर के सहयोग से नगर में प्रविष्ट १६. णाणं पयासगं सोहओ तवो'संजमो य गुत्तिकरो। तिहपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥ ज्ञान प्रकाश देता है। तप शोधन करता है और संयम निरोध करता है। इन तीनों का सम्यक् योग होने पर मोक्ष होता है। चूर्णिकार आह १७. एगंमि रण्णे रायभएण णगराओ उव्वसिय लोगो . ठितो। पुणावि धाडिभयेण पवहणाणि उझिअ पलाओ। तत्थ दुवे अणाहप्पाया अंधो पंगू य उज्झिया। गयाए धाडीए लोगग्गिणा वातेण वणदवो लग्गो। ते य भीया। अंधो छुट्टकच्छो अग्गितेण पलायइ। पंगुणा भणितं-अंध! मा इतो णास। णणु इतो चेव अग्गी। तेण भणितं-कुतो पुण गच्छामि? पंगुणा भणितं-अहंपि पुरतो अतिदूरे मम्गदेसणाऽसमत्थो पंगु। ता मं खंधे करेहि जेण अहिकंटकजलणादि अवाए परिहरावेतो सुहं ते नगरं पावेमि। तेणं तहत्ति पडिवज्जिय अणुदिठतं पंगुवयणं| गया य खेमेण दोवि णगरं ति। कुछ लोग राजभय से नगर छोड़ जंगल में जाकर रहने लगे। वहां एक बार डकैतों ने हमला किया। डकैतों के भय से वे अरण्यवासी अपने वाहनों को छोड़कर जान बचाने के लिए भागे। दो अनाथ व्यक्ति वहीं रह गए। उनमें एक अंध था और एक पंगु। डकैत वहां से लौट गए। जंगल में लोगों द्वारा आग जलाई गई थी। हवा के योग से उसने दावानल का रूप ले लिया। वे दोनों भयभीत हुए। अंधा व्यक्ति जंगल को छोड़कर अग्नि की ओर दौड़ा। पंगु ने कहा-ओ अंधे! इधर मत जाओ। आगे अग्नि है। अंधे ने पूछा-तो फिर मैं किधर जाऊं? मैं तुम्हें दूर तक मार्ग दिखाने में असमर्थ हूं। क्योंकि मैं पंगु हूं। इसलिए तुम मुझे अपने कंधे पर बिठाओ। मैं सर्प, कांटे और अग्नि आदि सभी बाधाओं से दूर रखते हुए सुखपूर्वक तुम्हें नगर में पहुंचा दूंगा। अंधे ने पंगु के प्रस्ताव को स्वीकार किया। उसने पंगु को अपने कंधे पर बिठाया।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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