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________________ आत्मा का दर्शन कम्पिल्ले संभूओ चित्तो पुण जाओ पुरिमतालम्मि । धम्मं सोऊण पव्वइओ ।। सेट्ठिकुलम्मि विसाले कम्पिल्लम्मिय नरे सुहदुक्खफलविवागं कति ते एक्कमेक्कस्स ॥ चक्कवट्टी महिड्ढीओ बम्भदत्तो महायसो । भायरं बहुम इमं वयणमब्बवी ॥ आसिमो भायरा दो वि अन्नमन्नवसाणुगा । अन्नमन्नमणूरत्ता अन्नमन्नहिएसिणो ॥ दासा दसणे आसी मिया कालिंजरे नगे । हंसा मयंगतीरे सोवागा कासिभूमि ॥ समागया दो वि चित्तसम्भूया । देवा य देवलोगम्मि आसिअम्हे महिड्ढिया । इमा नो छट्ठिया जाई अन्नमन्त्रेण जा विणा ॥ कम्मा नियाणप्पगडा तुमे राय ! विचिंतिया । तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया ॥ सच्चसोयप्पगडा कम्मा मए पुरा कडा । ते अज्ज परिभुंजामो किं नु चित्ते वि से तहा ? सव्वं सुचिणं सफलं नराणं कडा कम्माण न मोक्ख अत्थि । अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहिं आया ममं पुण्णफलोववेए । जाणासि संभूय ! महाणुभागं ४८६ महिड्ढियं पुण्णफलोववेयं । चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया ॥ गाहाणीया नरसंघमज्झे । महत्थरूवा वयणप्पभूया भिक्खुणो सीलगुणोववेया sesज्जयंते समणो म्हि जाओ ॥ खण्ड - ४ संभूत कांपिल्य नगर में उत्पन्न हुआ। चित्त पुरिमताल में एक विशाल श्रेष्ठी - कुल में उत्पन्न हुआ। वह धर्म सुन प्रव्रजित हो गया। कांपिल्य नगर में चित्त और संभूत दोनों मिले। दोनों ने परस्पर एक दूसरे के सुख-दुःख के विपाक की बात की। महान् ऋद्धिसम्पन्न और महान् यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने बहुमान पूर्वक अपने भाई से इस प्रकार कहाहम दोनों भाई थे। एक दूसरे के वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी । हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चांडाल थे। हम दोनों सौधर्म देवलोक में महान ऋद्धि वाले देव थे। यह हमारा छट्ठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से बिछुड़ गए। मुनि - राजन् ! तूने निदानकृत ( भोग-प्रार्थना से बद्धमान) कर्मों का चिंतन किया। उनके फल विपाक से हम बिछुड़ गए। चक्री - चित्त ! मैंने पूर्व जन्म में सत्य और शौचमय शुभ अनुष्ठान किए थे। आज मैं उनका फल भोग रहा हूं। क्या तू भी वैसा ही भोग रहा है ?" मनुष्यों का सब सुचीर्ण/सुकृत सफल होता है । कृत कर्मों का फल भोगे बिना मुक्ति नहीं होती। मेरी आत्मा उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्य फल से युक्त है। सम्भूत! जिस प्रकार तू अपने को महान् अनुभाग (अचिन्त्य शक्ति) सम्पन्न, महान ऋद्धिमान् और पुण्य फल से युक्त मानता है, उसी प्रकार चित्त को भी जान | राजन् ! उसके पास भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति थी । स्थविरों ने जनसमुदाय के बीच अल्पाक्षर और महान् अर्थ वाली जो गाथा गाई, जिसे शील और श्रुत से संपन्न भिक्षु बड़े यत्न से अर्जित करते हैं, उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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