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प्रायोगिक दर्शन
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अ. ५ : ज्ञान-क्रिया-समन्वय उच्चोयए महु कक्के य बंभे ।
उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्म ये प्रधान पवेइया आवसहा य रम्मा। प्रासाद और दूसरे अनेक रम्य प्रासाद हैं। पंचालदेश की इमं गिहं चित्तधणप्पभूयं
विशिष्ट वस्तु से युक्त और प्रचुर एवं विचित्र हिरण्य पसाहि पंचालगुणोववेयं॥ आदि से पूर्ण यह घर है। इसका तू उपभोग कर। नटेहि गीएहि य वाइएहिं
___ हे भिक्षु! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ नारीजनों नारीजणाई परिवारयंतो। को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भोग। यह मुझे भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू!
रुचता है। प्रव्रज्या वास्तव में ही कष्टकर है। मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं॥ तं पुवनेहेण कयाणुरागं,
धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले ___नराहिवं कामगुणेसु गिद्धं। चित्त मुनि ने पूर्वभव के स्नेहवश अपने प्रति अनुराग रखने धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही,
वाले, कामगुणों में आसक्त राजा से यह वचन कहा. चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था॥ सव्वं विलवियं गीयं सव्वं नट विडंबियं। सब गीत विलाप हैं। सब नाट्य विडंबना हैं। सब सव्वे आभरणा भारा सव्वे कामा दुहावहा॥ आभरण भार हैं और सब कामभोग दुष्कर हैं। बालाभिरामेसु दुहावहेसु न तं सुहं कामगुणेसु रायं। राजन् ! अज्ञानियों के लिए रमणीय और दुःखकर विरत्तकामाण तवोधणाणं
कामगुणों में वह सुख नहीं है, जो सुख कामों में विरत, जं भिक्खुणं सीलगुणे रयाणं॥ शील और गुण में रत तपोधन भिक्षु को प्राप्त होता है। तीसे य जाईइ उ पावियाए
__हम दोनों ने कुत्सित चांडाल जाति में जन्म लिया वुच्छामु सोवागनिवेसणेसु। और चांडालों की बस्ती में निवास किया। सब लोग हमसे सव्वस्स लोगस्स दुगंछणिज्जा
घृणा करते थे। इस जन्म में जो उच्चता प्राप्त हुई है, वह इहं तु कम्माइं पुरेकडाइं॥ शुभ कर्मों का फल है। सो दाणि सिं राय! महाणुभागो
उसी के कारण वह तू महान् अनुभाग (अचिंत्यमहिड्ढिओ पुण्णफलोववेओ। शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और पुण्यफल युक्त चइत्तु भोगाइं असासयाई
राजा बना है। इसलिए तू अशाश्वत भोगों को छोड़कर आयाणहेउं अभिणिक्खमाहि॥ चरित्रधर्म की आराधना के लिए अभिनिष्क्रमण कर। इह जीविए राय! असासयम्मि
राजन्! जो इसे अशाश्वत जीवन में प्रचुर शुभ . धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। अनुष्ठान नहीं करता, वह मृत्यु के मुंह में जाने पर से सोयई मच्चुमुहोवणीए
पश्चात्ताप करता है और धर्म की आराधना नहीं होने के धम्मं अकाऊण परंसि लोए॥ कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है। जहेह सीहो व मियं गहाय
___ जिस प्रकार सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है मच्चू नरं नेइ हु अंतकाले। उसी प्रकार अंतकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। न तस्स माया व पिया व भाया
काल आने पर उसके माता-पिता या भाई अंशधर नहीं कालम्मि तम्मिंसहरा भवंति॥ होते-अपने जीवन का भाग देकर बचा नहीं पाते। न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ
___ ज्ञाति, मित्रवर्ग, पुत्र और बांधव उसका दुःख नहीं न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है। - एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं
क्योंकि कर्म कर्ता का अनुगमन करता है। कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म॥