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________________ आत्मा का दर्शन चेच्चा दुपयं चउप्पयं च खेत्तं हिं धणधनं च सव्वं । कम्मप्पवीओ अवसो पयाइ परं भवं सुंदर पावगं वा ॥ तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से चिईगयं डहिय उ पावगेणं । भज्जा य पुत्ता वि य णायओ य दायारमन्नं अणुसंकiति ॥ उवणिज्जई जीवियमप्पमायं ४८८ वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं । पंचालराया ! वयणं सुणाहि मा कासि कम्माई महालयाई ॥ अहं पि जाणामि जहेह साहू ! जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं । भोगा इमे संगकरा हवंति जे दुज्जया अज्जो ! अम्हारिसेहिं ॥ खण्ड - ४ यह पराधीन आत्मा द्विपद, चतुष्पद, खेत, घर, धनं, धान्य, वस्त्र आदि सब कुछ छोड़कर केवल अपने किए कर्मों को साथ लेकर सुखद या दुःखद परभव में जाता है। उस अकेले और असार शरीर को अग्नि से चिता में जलाकर स्त्री, पुत्र और ज्ञाति किसी दूसरे दाता (जीविका देने वाले) के पीछे चले जाते हैं। राजन् ! कर्म बिना भूल किए निरंतर जीवन को मृत्यु के समीप ले जा रहे हैं। बुढ़ापा मनुष्य के वर्ण (स्निग्ध कांति) का हरण कर रहा है। पंचालराज! मेरा वचन सुन। प्रचुर कर्म मत कर। हे साधो ! तू जो मुझे यह वचन जैसे कह रहा है, वैसे मैं भी जानता हूं कि ये भोग आसक्तिजनक हैं, किन्तु आर्य! हमारे जैसे व्यक्तियों के लिए ये दुर्जय हैं। ...
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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