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प्रायोगिक दर्शन
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अ. ६ : धर्मसंघ
एकाकी विहार के दोष १६:गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परक्कंतं जो भिक्षु अव्यक्त (अपरिपक्व) अवस्था में अकेला भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो।
ग्रामानुग्राम विहार करता है उसकी यात्रा दुर्यात्रा होती है और उसका पराक्रम दुष्पराक्रम होता है।
१७.वयसा वि एगे बुझ्या कुप्पंति माणवा।
अपरिपक्व भिक्षु थोड़े-से प्रतिकूल वचन सुनकर कुपित हो जाता है।
१८.उन्नयमाणे य णरे, महता मोहेण मुन्झति।
अपरिपक्व भिक्षु थोड़ी-सी प्रशंसा सुनकर महान मोह से मूढ़ हो जाता है।
१९.संवाहा बहवे भुज्जो-भुज्जो दुरतिक्कमा अजाणतो
अपासतो।
अज्ञानी और अद्रष्टा भिक्षु बार-बार आने वाली बहुत सारी बाधाओं का पार नहीं पा सकता।
२०.एयं ते मा होउ।
मैं अव्यक्त अवस्था में अकेला विहार करूं-यह तुम्हारे मन में भी न हो।
२१.एयं कुसलस्स दंसणं।
यह महावीर का दर्शन है।
एकलविहार प्रतिमा का अधिकारी २२.अट्ठहिं ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरिहति आठ स्थानों से सम्पन्न अनगार एकलविहार । एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, तं प्रतिमा-संघमुक्त साधना को स्वीकार कर विहार कर जहा
सकता है१. सड्ढी पुरिसजाते २. सच्चे पुरिसजाते
१. श्रद्धावान २. सत्यवादी ३. मेहावी पुरिसजाते ४. बहुस्सुते पुरिसजाते ३. मेधावी ४. बहुश्रुत ५. सत्तिम ६. अप्पाधिगरणे
५. शक्तिमान ६. कलहमुक्त .७. धितिमं८. वीरियसंपण्णे
७. धृतिमान ८. वीर्यवान।
गणधारण की अर्हता . २३.अट्ठवासपरियाए समणे निग्गंथे आयारकुसले आठ वर्ष की दीक्षा पर्यायवाला श्रमण निग्रंथ यदि
संजमकुसले पवयणकुसले पण्णत्तिकुसले आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्सिकुशल, संगहकुसले उवग्णहकुसले अक्खयायारे संग्रहकुशल, उपग्रहकुशल, अक्षत-आचार, अशबलअसबलायारे अभिन्नायारे असंकिलिट्ठायारे आचार, अभिन्न-आचार, असंक्लिष्ट आचार वाला हो, बहुस्सुए बब्भागमे जहण्णेणं ठाणसमवायधरे कप्पइ बहुश्रुत हो, अनेक आगमों का ज्ञाता हो और कम से कम आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए पवत्तित्ताए थेरत्ताए स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता हो, उसे आचार्य, 'गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उहिसित्तए।
उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक का पद दिया जा सकता है।