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________________ आत्मा का दर्शन ४९४ , खण्ड-४ १४.जहा से तत्थ आगमे सिया, आगमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। णो से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुते सिया, सुतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। णो से तत्थ सुते सिया जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। णो से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। णो से तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीते सिया, जीतेणं ववहारं पट्ठवेज्जा। इच्चेतेहिं पंचहिं ववहारं पट्ठवेज्जा-आगमेणं सुतेणं आणाए धारणाए जीतेणं। जधा-जधा से तत्थ आगमे सुते आणा धारणा जीते तधा-तधा ववहारं पट्ठवेज्जा। से किमाहु भंते! आगमबलिया समणा णिग्गंथा? जहां आगम हो, वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आगम न हो, श्रुत हो, वहां श्रुत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां श्रुत न हो, आज्ञा हो, वहां आज्ञा से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां आज्ञा न हो, धारणा हो, वहां धारणा से व्यवहार की प्रस्थापना करे। जहां धारणा न हो, जीत हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करे-आगम से, श्रुत से, आज्ञा से, धारणा से, जीत से। जिस समय आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत में से जो प्रधान हो उसी से व्यवहार की प्रस्थापना करे। भंते! आगमबलिक-आगमज्ञ श्रमण-निग्रंथों ने इस विषय में क्या कहा है? आयुष्मन् श्रमणो! इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जिस-जिस विषय में जो व्यवहार हो, तब-तब वहां-वहां उसका अनिश्रितोपाश्रित-मध्यस्थभाव से सम्यग् व्यवहार करता हुआ श्रमण निग्रंथ आज्ञा का आराधक होता है। इच्चेतं पंचविधं ववहारं जया-जया जहिं-जहिं तया-तया तहिं-तहिं अणिस्सितोवस्सितं सम्मं ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराधए भवति। एकाकी विहार के अयोग्य १५.इहमेगेसिं एगचरिया भवति-से बहुकोहे बहुमाणे कुछ साधु अकेले रहकर साधना करते हैं, किन्तु कोई बहुमाए बहुलोहे बहुरए बहुनडे बहुसढे बहुसंकप्पे भी एकचारी साधु जो अतिक्रोधी, अतिमानी, अतिमायी, आसवसक्की पलिउच्छन्ने, उठ्ठियवायं पवयमाणे अतिलोभी, अतिआसक्त, नट की भांति बहुत रूप मा मे केइ अदक्खू। अण्णाणपमायदोसेणं सययं बदलने वाला, नाना प्रकार की शठता और संकल्प करने मूढे धम्म णाभिजाणइ। वाला, आस्रवों (हिंसा आदि) में आसक्त और कर्म से आच्छन्न होता है, हम धर्म करने के लिए उद्यत हुए हैं-ऐसी घोषणा करता है, कोई देख न ले-इस आशंका से छिपकर अनाचरण करता है वह अज्ञान और प्रमाद के दोष से सतत मूढ़ बना हुआ एकचारी होकर भी धर्म को नहीं जानता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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