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________________ आत्मा का दर्शन ३१४. इत्तरिय परिग्गहिया sपरिगहिया गमणा-णंगकीडं च । कामे तिव्वाभिलासं च ॥ परविवाहक्करणं, ३१५. विरया परिग्गहाओ, बहुदोस - संकुलाओ, अपरिमिआओ अणंततण्हाओ । नरय- गइ-गमण-पंथाओ ॥ ३१६. खित्ताइ हिरण्णाई ६९२ धणाइ दुपयाइ - कुवियगस्स तहा। सम्मविसुद्ध - चित्तो, ३१७. भाविज्ज य संतोसं, थोवं पुणो न एवं न पमाणाइक्कमं कुज्जा ॥ ( युग्मम्) गहियमियाणि अजाणमाणेणं । गिस्सामो त्ति चिंतिज्जा ॥ ३१८. जं च दिसा- वेरमणं, अणत्थ- दंडाउ जं च वेरमणं । देसावगासियं पि य, गुण- व्वयाइं भवे ताई ॥ ३१९. उड्ढमहे तिरियं पिय, दिसासु परिमाण करणमिह पढमं । भणियं गुणव्वयं खलु, ३२१. अट्ठेण तं न बंधइ, अट्ठे कालाईया, सावग - धम्मम्मि वीरेण ॥ ३२०. विरई अणत्थ दंडे, तच्चं स चउव्विहो अवज्झाणो । पमायायरिय हिंस-प्पयाण पावोवएसे य ॥ मट्ठे तु थोव-बहु- भावा । नियामगा न उ अणट्ठाए ॥ खण्ड- ५ स्वदारसंतोष (ब्रह्मचर्य) अणुव्रती श्रावक विवाहित या अविवाहित स्त्रियों के साथ सहवास न करे। अनंगक्रीडा न करे, अपनी संतान को छोड़ दूसरों के विवाह न कराए और अत्यंत कामासक्त न बने। परिग्रह-परिमाण का अणुव्रती श्रावक अपरिमित, . अनन्त तृष्णा उत्पन्न करने वाले बहु दोष तथा नरक गति की ओर ले जाने वाले पथ रूप से विरत होता है। अतः वह सम्यक् विशुद्ध चित्त वाला अणुव्रती क्षेत्रमकान, सोना-चांदी, धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद आदि परिग्रह की स्वीकृत मर्यादा का अतिक्रमण न करे।. . परिग्रह - परिमाण के अणुव्रती को संतोषी होना चाहिए। उसे ऐसा विचार नहीं करना चाहिए कि "इस समय मैंने बिना जाने थोडा परिमाण किया, आगे आवश्यक होने पर पुनः अधिक ग्रहण कर लूंगा । " श्रावक के सात शिक्षा व्रतों में ये तीन गुणव्रत होते हैं- दिशा- विरति, अनर्थदंडविरति तथा देशावकाशिक । (व्यापार आदि के क्षेत्र को परिमित करने के अभिप्राय से) ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशाओं में गमनागमन-या संपर्क की सीमा करना दिव्रत नामक प्रथम गुणव्रत है। (प्रयोजन - विहीन कार्य करना अनर्थदंड कहलाता है।) इसके चार भेद हैं-अपध्यान, प्रमादपूर्ण आचरण, घातक - शस्त्रों का प्रदान और पाप उपदेश । इन चारों का त्याग अनर्थदंड - विरति नामक तीसरा गुणव्रत है। सप्रयोजन कार्य में वह कर्म-बंध नहीं होता, जो निष्प्रयोजन कार्य में होता है। अल्प और अधिक कर्म-बंध का कारण यह है कि पहले कार्य में आवश्कता प्रधान होती है और दूसरे कार्य में प्रमाद प्रधान होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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