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समणसुत्तं ३०६. मज्जेण णरो अवसो,कुणेइ कम्माणि शिंदणिज्जाइं।
इहलोए परलोए,अणुहवइ अणंतयं दुक्खं॥
अ. २ : मोक्षमार्ग मनुष्य मद्यपान से विवश होकर निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुःखों का अनुभव करता है।
३०७.संवेग जणिद करणा,णिस्सल्ला मंदरोव्व णिक्कंपा।
जस्स दढा जिण-भत्ती,तस्स भयं णत्थि संसारे॥
वैराग्य उत्पन्न करने वाली, शल्य रहित और मेरु की भांति निष्कंप दृढ जिन-भक्ति जिसके हृदय में है, उसे संसार में कोई भय नहीं है।
३०८. सत्तू वि मित्त-भावं,जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स।
विणओ तिविहेण तओ, कायव्यो देस-विरएण॥
शत्रु भी विनयशीलता के कारण मित्र बन जाता है। इसलिए अणुव्रती श्रावक को मनसा, वाचा कर्मणा विनम्र होना चाहिए।
३०९. पाणिवह-मुसावाए,
अदत्त-परदार-नियमणेहिं च। अपरिमिइच्छाओऽवि य,
अणुव्वयाई विरमणाई॥
प्राणि-वध (हिंसा), मृषावाद (असत्य वचन), बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण (चोरी), परस्त्री सेवन (कुशील) तथा अपरिमित कामना (परिग्रह) इन पांचों पापों से विरति अणुव्रत है।
३१०. बंध-वह-च्छवि-च्छेए,
: कोहाइ-दूसिय-मणो,
गो-मणुयाईण नो कुज्जा॥
प्राणिवध से विरत श्रावक क्रोध आदि कषायों से मन को दूषित कर पशु व मनुष्य आदि का बंधन, डंडे आदि से हनन, अंगोपांगो का छेदन, अतिभार आरोपण तथा खान-पान का विच्छेद न करे।
३११. थूल-मुसावायस्स उ,
स्थूल असत्यविरति श्रावक दूसरा अणुव्रत है। इसके विरई दुच्चं स पंचहा होइ। पांच भेद हैं-कन्या-अलीक-वैवाहिक संबंध के विषय में कन्ना-गो-भूमालिय,
झूठ बोलना गो-अलीक-पशु विक्रय के विषय में झूठ . नास-हरण-कूड सक्खिज्जे॥ बोलना व भू-अलीक-भूमि-विक्रय के विषय में झूठ
बोलना, किसी की धरोहर को दबा लेना और झूठी गवाही देना। इनका त्याग स्थूल असत्य-विरति है।
३१२. सहसा अब्भक्खाणं,
रहसा य सदार मंत भेयं च। मोसोवएसयं,
कूडलेह करणं च वज्जिज्जा॥
सत्य-अणुव्रती सहसा किसी पर आरोप न लगाए, किसी का रहस्योद्घाटन न करे, अपनी पत्नी की कोई गुप्त बात मित्रों आदि में प्रकट न करे, मिथ्या उपदेश न करे और कूटलेख-क्रिया (जाली हस्ताक्षर या जाली दस्तावेज आदि) न करे।
३१३. वज्जिज्जा तेनाहड
__ अचौर्य अणुव्रती श्रावक चोरी का माल न खरीदे, तक्करमान
तक्करजोगं विरुद्ध रज्जं च। चोरी में प्रेरक न बने। झठा तोल-माप न करे तथा असली कूडतुल-कूडमाणं,
माल दिखाकर नकली माल न दे, मिलावट न करे, जाली तप्पडिरूवं च ववहारं॥ सिक्के, नोट आदि न चलाए।