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आत्मा का दर्शन
२९७. दाणं पूया मुक्खं,
सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । झणझणं मुक्खं,
इ-धम्मे तं विणा तहा सो वि ॥
२९८. सन्ति एहिं भिक्खुहिं, गारत्था संजमुत्तरा । गारत्थेहि य सव्वेहिं साहबो संजमुत्तरा ॥
२९९. नो खलु अहं तहा, संचाएमि मुंडे पव्वत्तए । अहं णं देवाणुप्पियाणं,
अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावश्यं । दुवालसविहं गिहि- धम्मं पडिवज्जिस्सामि ॥
३००. पंच य अणुव्वयाई,
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सत्त उ सिक्खाउ देस - जइ - धम्मो । सव्वेण व देसेण व
ते जुओ होइ देस - जई ॥
श्रावक धर्म सूत्र
३०१. संपत्त- दंसणाई, पइदियहं जइ जणा सुणेई य । सामायारिं परमं, जो खलु तं सावगं बिंति ॥
३०२. पंचुंबर सहियाई, सत्त वि बिसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्त विसुद्ध मई, सो दंसण सावओ भाणिओ ।।
३०३. इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य दंड फरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त बसणाई |
३०४. मंसासणेण वड्ढइ, दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमइ तो तं पि वण्णिए पाउणइ दोसे ॥
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३०५. लोइयसत्यम्मि वि वण्णियं
जहा गयणगामिणो विप्या भुवि मंसासणेण पडिया, तम्हा ण पउंजए मंसं ॥
खण्ड - ५
श्रावक धर्म में दान (अतिथि संविभाग) और पून (उपासना) मुख्य हैं। इनके बिना श्रावक नहीं होता तथा श्रमण धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य हैं, इनके बिना श्रमण नहीं होता।
कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम प्रधान होता है। किन्तु साधुओं का संयम सब गृहस्थों से प्रधान होता है।
(श्रद्धालु गृहस्थ कहता है) मैं मुनि की भांति मुंड होकर प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हूं। भगवन्! मैं आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप गृहस्थ धर्म को स्वीकार करूंगा।'
श्रावक धर्म में पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत होते हैं। जो व्यक्ति इन सबका या इनमें से कुछ का आचरण करता है वह देश यति (श्रावक) कहलाता है।
श्रावक धर्म सूत्र
जिसे सम्यक् 'दर्शन, ज्ञान और देश चारित्र प्राप्त है और जो प्रतिदिन यतिजनों से परम सामाचारी (आचारविषयक उपदेश) श्रवण करता है, उसे श्रावक कहते हैं।
जिसकी मति सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हो गयी है, उसे पांच उदुम्बर फल (उमर, कठूमर, गूलर, पीपल तथा बड) तथा सात व्यसनों का त्याग करना चाहिए।
परस्त्रीगमन, द्यूत-क्रीड़ा, मद्यपान, शिकार, कठोर वचन का प्रयोग, कठोर दंड तथा आर्थिक असदाचार (चोरी आदि) ये सात व्यसन हैं। (श्रावक इनका त्याग करता है।)
मांसाहार से दर्प बढता है। दर्प से मद्यपान की अभिलाषा जागती है और वह जुआ भी खेलता है। इस प्रकार मांसाहारी मनुष्य इन सब दोषों को प्राप्त होता है।
लौकिक शास्त्र में भी यह उल्लेख मिलता है कि मांस खाने से आकाशगामी विप्र भूमि पर गिर पड़े। अतः मांस का सेवन नहीं करना चाहिए।