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समणसुत्तं
३२२. कंदप्पं कुक्कुइयं, मोहरियं संजुयाहिगरणं च । उपभोग- परीभोगा- इरेयगयं चित्थ वज्जइ ॥
३२३. वय-भंग - कारणं होई,
जम्मि देसम्म तत्थ नियमेण ।
कीर गमण - णित्ती,
३२४. भोगाणं परिसंखा,
सामाइय- अतिहि संविभागो य । पोसह - विही य सव्वो,
चउरो सिक्खाउ वृत्ताओ ॥
३२५. वज्जणमणंत - गुंबर
तं जण गुण व्वयं विदियं ॥
अच्चगाणं च भोगओ माणं ।
कम्मयओ खर- कम्मा
३२६. सावज्ज-जोग-परिरक्खणट्ठा,
गहत्थ - धम्मा परमं ति नच्चा,
३२७. सामाइयम्मि उ कए,
इयाण अवरं इमं भणियं ॥
सामाइयं केवलियं पसत्थं ।
कुज्जा बुह आय-हियं परत्था ॥
समणो इव सावओ हवइ जम्हा । एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥
. ३२८. सामाइयं ति काउं, परचिंतं जो उ चिंतई सड्ढो । अट्टवसट्टोवगओ, निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥
३२९. आहार- देह-सक्कार
देसे सव्वे य इमं,
भावावर पोसह यण्णं ।
चरमे सामाइयं णियमा ॥
अ. २ : मोक्षमार्ग
अनर्थदंड - विरत श्रावक कन्दर्प ( हास्यपूर्ण अशिष्ट वचन प्रयोग), कौत्कुच्य (शारीरिक कुचेष्टा), मौखर्य (वाचालता), हिंसा के अधिकरणों का संयोजन तथा उपभोग - परिभोग की मर्यादा का अतिरेक न करे।
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जिस देश में जाने से किसी भी व्रत का भंग होता हो या उसमें दोष लगता हो, उस देश में जाने की नियमपूर्वक निवृत्ति देशावकाशिक नामक दूसरा गुणव्रत है।
चार शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं-भोगों का परिमाण, सामायिक, पौषधोपवास और अतिथि संविभाग |
भागोपभोग परिमाणव्रत दो प्रकार का है-भोजनरूप तथा व्यापाररूप। कन्दमूल आदि अनन्तकायिक वनस्पति, उदुम्बर फल तथा मद्यमांस आदि का त्याग या परिमाण भोजन विषयक भोगोपभोग व्रत है और खरकर्म अर्थात् हिंसापरक आजीविका आदि का त्याग व्यापारविषयक भोगोपभोग परिमाण व्रत है।
सावद्ययोग - हिंसा आदि की निवृत्ति के लिए विशुद्ध सामायिक प्रशस्त है। उसे श्रेष्ठ गृहस्थधर्म जानकर ज्ञानी आत्महित तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए सामायिक करे।
सामायिक काल में श्रावक श्रमण के समान हो जाता है। अतएव बार-बार सामायिक करना चाहिए ।
सामायिक करते समय जो श्रावक पर चिन्ता (आत्म साधना से भिन्न चिंतन) करता है, वह आर्त्त ध्यान को प्राप्त होता है। उसकी सामायिक अर्थहीन हो जाती है।
आहार त्याग, शरीर-संस्कार त्याग, अब्रह्म तथा आरंभ-त्याग ये चार पौषध के अंग हैं। पौषध आंशिक भी होता है और प्रतिपूर्ण भी होता है। जो प्रतिपूर्ण पौषध करता है, उसमें नियमतः सामायिक होती है।