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आत्मा का दर्शन
३३०. अन्नाईणं सुद्धाणं, कप्पणिज्जाण देस-काल- जुत्तं । दाणं जईणमुचियं, गिहीण सिक्खावयं भणियं ॥
३३१. आहारोसह-सत्थाभय-भेओ जं चउव्विहं दाणं । तं वच्चइ दायव्वं, णिद्दिट्ठमुवासयज्झयणे ॥
३३२. दाणं भोयण- मेत्तं दिज्जइ धन्नो हवेइ सायारो । पत्तापत्त-विसेसं, संदंसणे किं वियारेण ॥
३३३. साहूणं कप्पणिज्जं,
जं न वि दिण्णं कहिं पि किंचि तहिं । धीरा जहुत्तकारी,
सुसावया तं न भुंजंति ॥
३३४. जो मुणि-भुत्त-विसेसं,
संसार-सार-सोक्खं,
भुंज सो भुंजए जिणुवदिट्ठं ।
कमसो णिव्वाण - वर - सोक्खं ॥
३३५. जं कीरइ परिरक्खा,
णिच्चं मरण - भयभीरु - जीवाणं । तं जाण अभय-दाणं, सिहामणिं सव्व - दाणाणं ।।
श्रमणधर्म सूत्र
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३३६. समणो त्ति संजदो त्तिय,
रिस मुणि साधु त्ति वीदरागो ति । णामाणि सुविहिदाणं, अणगार भदंत दंतो त्ति ॥
३३७. सीह-गय-वसह मिय-पसु,
खिदि-उरगंबरसरिसा,
मारुद सूरूवहि-मंदरिंदु-मणी ।
परम-पय-विमग्गया साहू ॥
खण्ड - ५
उद्गम आदि दोषों से रहित देशकालानुकूल, शुद्ध अन्न आदि का उचित रीति से मुनियों को दान देना गृहस्थों का अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है।
आहार, औषध, शास्त्र ज्ञान और अभय-दान चार प्रकार का कहा गया है। उपासक अध्ययन (श्रावकाचार ) में उसे देने योग्य कहा गया है।
मुनि को भोजनमात्र का दान करने से ही गृहस्थ धन्य होता है। भिक्षा के लिए उपस्थित होने पर पात्र और अपात्र का विचार नहीं किया जाता।
शास्त्रोक्त आचरण करने वाले धीर सुश्रावक साधुओं को कल्पनीय (उनके अनुकूल) यत्किञ्चित् दान दिए बिना भोजन नहीं करते।
जो गृहस्थ मुनि को अर्हतों द्वारा उपदिष्ट भोजन का दान देने से पूर्व भोजन नहीं करता है, वह संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है।
मृत्यु-भय से भयभीत जीवों की रक्षा करना ( उनकी हिंसा न करना) । अभय दान है। वह सब दानों का शिरोमणि है।
श्रमणधर्म सूत्र
श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार, भदन्त, ये सब सम्यग् विधि से आचरण करनेवाले मुनि के एकार्थक नाम हैं।
सिंह के समान अपराजेय, हाथी के समान शक्तिशाली, वृषभ के समान धुरा को वहन करनेवाला, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान अप्रतिबद्ध, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर, मेरु के समान अप्रकंप, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान एक लक्ष्यदृष्टि तथा आकाश के समान निरालंब साधु परमपद मोक्ष की खोज में रहते हैं।