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आत्मा का दर्शन
एगे भवं ? दुवे भवं ? अक्खए भवं ? अव्वए भवं ? अवट्ठिए भवं? अगभूय-भाव-भविए भवं ? सोमिला ! एगे वि अहं जाव अणेगभूय-भावभवि वि अहं ।
सेकेणट्ठेणं भंते! एवं वुच्चइ
सोमिला ! दव्वट्टयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ट्याए दुविहे अहं, पएसट्ट्याए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवयोगट्ठए अणेगभूय भाव - भविए वि अहं । से
ट्ठे जाव अगभूय-भाव-भविए वि अहं ।
एत्थ णं से सोमिले माहणे संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ ।.......दुवालसविहं सावगधम्मं पडिवज्जति, पडिवज्जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए।
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खण्ड - २
भंते! आप एक हैं ? दो हैं ? अक्षय हैं ? अव्यय हैं ? अवस्थित हैं ? अनेक भूतभावभविक हैं ?
सोमिल! मैं एक भी हूं यावत् अनेक भूतभावभविक भी हूं।
भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है ? सोमिल! मैं द्रव्य की अपेक्षा एक हूं। ज्ञान-दर्शन की अपेक्षा दो हूं। प्रदेश-असंख्य चैतन्यमय परमाणुओं की अपेक्षा मैं अक्षय, अव्यय और अवस्थित हूं। उपयोग की अपेक्षा मैं अनेक भूतभावभविक अनेक पर्यायों से युक्त हूं। इस अपेक्षा से कहा जा रहा है मैं एक यावत् भूतभावभविक हूं।
सोमिल ब्रह्मण ने श्रमण भगवान महावीर को वंदननमस्कार किया। बारह प्रकार का श्रावक धर्म स्वीकार किया । पुनः महावीर को वंदन - नमस्कार कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया।
महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग
२३. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे नामं नगरे होत्था । तस्स णं मेंढियगामस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए। एत्थ णं साणकोट्ठए नाम चेइ होत्था ।....... तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नामं गाहावइणी परिवसति ।
तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णदा कदायि पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव मेंढियगामे नगरे जेणेव साणकोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ ।
तणं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउब्भूए.......तिव्वे दुरहियासे, पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतिए यावि विहरति, अवि याइं लोहिय- वच्चाई पि पकरेइ । चाउवण्णं च णं वागरेति एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं
श्रमण भगवान महावीर ने श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक चैत्य से प्रस्थान किया और जनपद विहार करने लगे।
मेंढयग्राम नाम का नगर । ईशानकोण में शाणकोष्ठक नाम का चैत्य । उस मेंढियग्राम नगर में रेवती नाम की गृहस्वामिनी रहती थी ।
श्रमण भगवान महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मेंढियग्राम नगर में शाणकोष्ठक चैत्य में आए।
वहां श्रमण भगवान महावीर के शरीर में अत्यधिक रोग और आतंक हुआ। असह्य वेदना हुई। शरीर दाहज्वर से आक्रान्त हो गया। खून की दस्तें लगने लगीं ।
उस समय जनता में यह बात फैलाई गई कि श्रमण भगवान महावीर मंखलिपुत्र गोशालक के तप और तेज से