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________________ उद्भव और विकास ११७ अ.४ : जीवन प्रसंग इति कटु.....साओ गिहाओ पडिणिक्खमति, ऐसा सोच सोमिल ब्राह्मण अपने घर से निकला। पडिणिक्खमित्ता पायविहारचारेणं एगेणं पैदल ही चला। सौ विद्यार्थी उसके साथ थे। दूतिपलाश "खंडियसएणं सद्धिं संपरिखुडे....जेणेव दूतिपलासए चैत्य में वह श्रमण भगवान महावीर के पास पहुंचा और चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव बोलाउवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीर एवं वयासीजत्ता ते भंते? जवणिज्जं ते भंते? अव्वाबाहं ते ___भंते! क्या आपके यात्रा है? भंते! क्या आपके भंते? फासुयविहारं ते भंते? यमनीय है ? भंते! क्या आपके अव्याबाध है? भंते! क्या आपके प्रासुक विहार है? सोमिला! जत्ता वि मे, जवणिज्जं पि मे, सोमिल! मेरे यात्रा भी है। मेरे यमनीय भी है। मेरे अव्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे। अव्याबाध भी है। मेरे प्रासुक विहार भी है। किं ते भंते! जत्ता? भंते! आपकी यात्रा क्या है? सोमिला! जं मे तव-नियम-संजमसज्झाय- सोमिल! तप, नियम, स्वाध्याय, ध्यान, आवश्यक झाणावस्सगमावीएसु जोगेसु जयणा, सेत्तं जत्ता। आदि योगों में मेरी जो यतना-जागरूकता है, वह मेरी यात्रा है। किंते भंते! जवणिज्ज? . भंते! आपके यमनीय क्या है? सोमिला! जवणिज्जे दुविहे षण्णत्ते, तं जहा सोमिल! यमनीय के दो प्रकार हैंइंदियजवणिज्जे व इन्द्रिय यमनीय नोइंदियजवणिज्जे य। नोइन्द्रिय यमनीय। • से किं तं इंदियजवणिज्जे? वह इन्द्रिय यमनीय क्या है ? इंदियजवणिज्जे-जं मे सोइंदिय-चक्खिंदिय- जो मेरी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई निरुवहयाइं और स्पर्शनेन्द्रिय निरुपहत हैं-किसी विषय से आहत वसे वटंति, सेत्तं इंदियजवणिज्जे। नहीं होतीं, मेरे वश में हैं, वह मेरा इन्द्रिय यमनीय है। से किं तं नोइंदियजवणिज्जे? वह नोइन्द्रिय यमनीय क्या है? नोइंदियजवणिज्जे-जं मे कोह-माण-माया-लोभा मेरे क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो गए हैं, वोच्छिण्णा नो उदीरेंति, सेत्तं नोइंदियजवणिज्जे। इनकी उदीरणा नहीं होती, वह मेरा नोइंद्रिय यमनीय है। किं ते भंते! अव्वाबाहं? भंते! आपके अव्याबाध क्या है? सोमिला! जं मे वातिय-पित्तिय-सेंभिय- सोमिल! मेरे वात पित्त व श्लेष्म जनित तथा सन्निवाइया विविहा रोगायंका सरीरगया दोसा सान्निपातिक विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा उवसंता नो उदीरेंति, सेत्तं अव्वाबाह। शरीरगत दोष उपशांत हो गए हैं, उनकी उदीरणा नहीं होती, वह मेरा अव्याबाध है। किं ते भंते! फासुयविहारं? भंते ! आपके प्रासुक विहार क्या है ? सोमिला! जण्णं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सोमिल! मैं प्रासुक एषणीय पीढ, फलक, शय्या, सभासु पवासु इत्थी-पसु-पंडगविवज्जियासु वसहीसु संस्तारक स्वीकार कर विहार करता हूं, वह मेरा प्रासुक फासु-एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं विहार है। उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, सेत्तं फासुयविहारं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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