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________________ आत्मा का दर्शन ७३२ खण्ड-५ ६२९. धम्माधम्मे य दोऽवेए, लोगमित्ता वियाहिया। लोगालोगे य आगासे, समए समयखेत्तिए॥ धर्म और अधर्म ये दोनों ही द्रव्य लोकप्रमाण है। आकाश लोक और अलोक में व्याप्त है। काल केवल समयक्षेत्र अर्थात् मनुष्यक्षेत्र में ही है। ६३०. अन्नोन्नं पविसंता, दिता ओगास-मन्नमन्नस्स। मेलंता वि य णिच्चं, सगं संभावं ण विजहंति॥ ये सब द्रव्य परस्पर में प्रविष्ट हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को अवकाश देते हुए स्थित है। ये इसी प्रकार अनादिकाल से मिले हुए हैं, किन्तु अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। ६३१. धम्मात्थिकाय-मरसं, अवण्ण-गंधं असह-मप्फासं। लोगागाढं पुढं, पिहुल-मसंखादिय-पदेसं॥ धर्मास्तिकाय रस, रूप, स्पर्श, गंध और शब्द-रहित है। समस्त लोकाकाश में व्याप्त है, अखंड है, विशाल है और असंख्यातप्रदेशी है। ६३२. उदयं जह मच्छाणं,गमणाणुग्गयरं हवदि लोए। तह जीव-पुग्गलाणं, धम्मं दव्वं वियाणेहि॥ . जैसे इस लोक में जल मछलियों के गमन में सहायक होता है, वैसे ही धर्मद्रव्य जीवों तथा पुद्गलों के गमन में सहायक या निमित्त बनता है। ६३३. ण य गच्छदि धम्मत्थी, गमणं ण करेदि अन्न-दवियस्स। हवदि गती सप्पसरो, जीवाणं पुग्गलाणं च॥ धर्मास्तिकाय स्वयं गमन नहीं करता और न अन्य द्रव्यों को गमन के लिए प्रेरित करता है। वह जीवों और पुद्गलों की गति में उदासीन कारण है। यही धर्मास्तिकाय का लक्षण है। ६३४. जह हवदि धम्मदव्वं, तहतं जाणेह दव्व-मधम्मक्खं। ठिदि-किरिया-जुत्ताणं, ___ कारणभूदं तु पुढवीव॥ ___धर्मद्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु अंतर यह है कि यह स्थितिरूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति में पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है। ६३५. चेयण-रहिय-ममुत्तं, अवगाहण-लक्खणं च सव्वगयं। लोयालोय-विभेयं, तं णह-दव्वं जिणुहिठं॥ जिनेन्द्रदेव ने आकाश-द्रव्य को अचेतन, अमूर्त्त, व्यापक और अवगाह लक्षणवाला कहा है। लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है। ६३६. जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए॥ यह लोक जीव और अजीवमय है। जहां अजीव का एकदेश (भाग) केवल आकाश पाया जाता है, उसे अलोक कहते हैं। ६३७. पास-रस-गंध-वण्ण ____ व्वदिरित्तो अगुरु-लहुग-संजुत्तो। वत्तण-लक्खण-कलियं, कालसरूवं इमं होदि॥ स्पर्श, गन्ध, रस और रूप रहित, अगुरु-लघु गुण युक्त तथा वर्तना लक्षणवाला कालद्रव्य है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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