________________
संबोधि
२६३
अ. १० : संयतचर्या
संसार की विमुखता के लिए बोधि अपेक्षित है। उसकी प्राप्ति उन्हीं से हो सकती है जो स्वयं बोधि को प्राप्त है, जिन्हें बोधि का स्पर्श हुआ है। सद्गुरु की उपासना, सत्संग का प्रयोजन का हेतु इसीलिए है सद्गुरु की सन्निधि से । अनेक लोगों ने जीवन नैय्या पार की है। सत्संग को भव सागर से पार करने के लिए नौका की उपमा ही है 'सत्सङ्गात् संजायते ज्ञानं' सत्संग से वह ज्ञान प्राप्त होता है जिसे पाकर व्यक्ति संसार से उदासीन बन जाता है, संसार के स्वरूप का उसे दिग्दर्शन हो जाता है। अबोधि ऐसा नहीं कर सकती। इसलिए अबोधि को दुःख कहा है बोधि सहज ही व्यक्ति को शनैः-शनैः आत्मस्थ बना देती है, उसके अज्ञानतम का उच्छेद कर देती है और उसे पूर्ण सुखी आनंदित बना देती है। बोधि प्राप्ति का एक उपाय है सत्संग, उसके अन्य नियम भी हैं। यह आवश्यक नहीं है कि सबको सत्संग का योग मिले ही कुछ-कुछ व्यक्ति स्वतः ही अपनी साधना के द्वारा सहज ही उसे प्राप्त कर लेते हैं, कुछ अन्य निमित्तों को पाकर बुद्धत्व को प्राप्त हो जाते हैं।
३४. स्वयं बुद्धा भवन्त्येके, केचित् स्युर्बुद्धबोधिताः । केचित् प्रत्येकबुद्धाः स्युः बोधिनांनायना भवेत् ॥
॥ व्याख्या ॥
बोधि का अर्थ है रत्नत्रयी- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगुचारित्र इन तीनों का योग संसार का अंत करने वाला है। सम्यग्दर्शन सबका मूल है। बोधि प्राप्ति सहज नहीं है। वह कुछ व्यक्तियों को बिना उपदेष्टा के प्राप्त हो जाती है। वे 'स्वयंबुद्ध' कहलाते हैं। सभी तीर्थंकर स्वयंबुद्ध होते हैं। यह पूर्व कर्म की अल्पता पर और वर्तमान की महान् तपस्या पर आधारित है।
कर्म-क्षय के बिना आत्मा की शुद्धि नहीं होती। अशुद्ध आत्मा में धर्म (बोधि) का अंकुर फूटता नहीं। दूसरी श्रेणी में वे व्यक्ति आते हैं जो किसी उपदेष्टा के द्वारा धर्म को स्वीकार करते हैं। स्वयंबुद्ध कम होते हैं, अधिकांश व्यक्ति उपदेश से सत्य मार्ग प्राप्त करते हैं। सत्यासत्य का निर्णय करने में वे स्वतंत्र होते हैं। उपदेशक उन्हें तत्त्व-दर्शन देते हैं। तत्त्व- ज्ञान को पाकर वे मुक्ति की ओर अपने आप ही प्रेरित होते हैं और दुःखों का अंत करते हैं। वे बुद्धबोधित होते हैं।
संसार का अन्त करने वालों में कुछ जीव 'स्वयंबुद्ध" होते हैं, 'बुद्धबोधित' होते हैं और कुछ 'प्रत्येक बुद्ध'' होते हैं। इस प्रकार बोधि की प्राप्ति के अनेक मार्ग हैं।
२
तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों को बोधि के लिए बाहरी निमित्त मिलता है। वे कोई एक विशिष्ट घटना से प्रतिबुद्ध हो जाते हैं। वे 'प्रत्येक बुद्ध' कहलाते हैं। मिट्टी कुंभकार, चाक आदि निमित्त को पाकर घड़े आदि प्रकारों में रूपांतरित हो जाती है, इसी प्रकार अंतश्चेतना बाहरी कारणों से प्रबुद्ध हो जाती है वे हैं निमित्त, न कि उपादान निमित्त का कोई अस्तित्व नहीं रहता । महात्मा बुद्ध रोगी, वृद्ध और शव का योग पाकर संसार से विरक्त बन गए। महाराज भर्तृहरि अमरफल को देख संसार से उद्विग्न हो गए। जैन आगमों में ऐसी कई घटनाएं हैं भरत चक्रवर्ती शरीर प्रेक्षा करते-करते अनित्य भाव में लीन हो गए। नमि राजर्षि- एक चूड़ी का शब्द नहीं होता, अनेक होती हैं तब होता है', यह सोच एकत्व भावना में लीन हो गए 'जो वृक्ष प्रातः फूल और पत्तों से सुशोभित था, वही अब असुन्दर सा प्रतीत होता है जीवन का भी यही क्रम है। पहले सरस लगता है और बाद में नीरस इसी भावना से नम्गति नृप बोधि को प्राप्त हो गए। ये घटनाएं प्रत्येक - बुद्धत्व की हैं।
३५. योग्यताभेदतः पुंसां रुचिभेदो हि जायते । रुचिभेदाद् भवेद् भेदः, साधनाध्वावलम्बने ॥
१. स्वयंमुख उपदेश आदि के बिना स्वतः बोध पाने वाले। २. बुद्धबोधित - बुद्धों के द्वारा प्रतिबोध पाने वाले ।
सभी मनुष्यों की योग्यता समान नहीं होती इसलिए उनकी रुचि भी समान नहीं होती। रुचि भेद के कारण साधना के विभिन्न मार्गों का अवलंबन लिया जाता है।
३. प्रत्येक बुद्ध - किसी एक घटना विशेष से बोध पाने वाले ।