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________________ आत्मा का दर्शन २६२ खण्ड-३ २८.पञ्चेन्द्रियवधं कृत्वा, महारम्भपरिग्रहो। जो पुरुष पंचेन्द्रिय का वध करता है, महा-आरम्भ- हिंसा मांसस्य भोजनश्चापि, नरकं याति मानवः॥ करता है, महा-परिग्रही होता है और जो मांस-भोजन करता है, वह नरक में जाता है। २९. सरागसंयमो नूनं, संयमासंयमस्तथा। स्वर्ग में जाने के चार कारण है : १. सराग संयम-अवीतराग अकामनिर्जरा बाल-तपः स्वर्गस्य हेतवः॥ ___ का संयम, २. संयमासंयम-अपूर्ण संयम, ३. अकाम निर्जरा-जिसमें मोक्ष का उद्देश्य न हो वैसे तप से होने वाली आत्मशुद्धि और ४. बाल-तप-अज्ञानी का तप। ३०.विनीतः सरलात्मा च, अल्पारम्भपरिग्रहः। जो विनीत और सरल होता है, अल्प-आरंभ और अल्पसानुक्रोशोऽमत्सरी स, जनो याति मनुष्यताम्॥ परिग्रह वाला होता है, दयालु और मात्सर्य रहित होता है, वह मृत्यु के बाद मनुष्य-जन्म को प्राप्त होता है। ३१.मायाञ्च निकृतिं कृत्वा, कृत्वा चासत्यभाषणम्। तिर्यंच-पश-पक्षी आदि की गति में उत्पन्न होने के चार कूटं तोलं न मानञ्च, जीवस्तिर्यग्गतिं व्रजेत्॥ कारण है : १. कपट, २. प्रवंचना, ३. असत्य-भाषण और ४. कूट तौल-माप। ॥ व्याख्या ॥ इन चार श्लोकों में नरक, स्वर्ग, मनुष्य और तिर्यंच-इन चार गतियों की प्राप्ति के चार-चार कारण निर्दिष्ट हैं। इनके अध्ययन से यह सहज पता लग सकता है कि किस अध्यवसाय वाले प्राणी किस योनि में जाते हैं। कर्म का फल अवश्य होता है-यह जैन दर्शन का ध्रुव तथ्य है। अपने-अपने कर्मों के अनुसार व्यक्ति जन्म-मरण करता है। उपर्युक्त निर्दिष्ट कारण एक संकेत मात्र हैं। वे तथा उन जैसे अनेक कारणों के संयोग से व्यक्ति को वे-वे योनियां प्राप्त होती हैं। केवल ये ही कारण नियामक नहीं हैं। नरक जाने का एक हेतु मांसाहार है किन्तु मांस खाने वाले सभी व्यक्ति नरक में ही जाते हों, ऐसी नियामकता नहीं है। यह तथ्य अवश्य है कि मांसाहार व्यक्ति में क्रूरता पैदा करता है और उससे कर्म-परंपरा तीव्र होती चली जाती है। अतः इन कारणों के आलोक में हमें स्पष्ट जान लेना चाहिए कि गति की प्राप्ति में किन-किन अध्यवसायों या प्रवृत्तियों का क्या-क्या परिणाम होता है। ३२.शुभाशुभाभ्यां प्रमादबहुलो कर्माभ्यां, संसारमनुवर्तते। जीवोऽप्रमादेनान्तमृच्छति॥ प्रमादी जीव शुभ और अशुभ कर्मों के द्वारा संसार में अनुवर्तन करता है और अप्रमादी जीव संसार का अन्त कर देता है। ३३. बोधिमासाद्य जायन्ते, भवभ्रमपराङ्मुखाः। अबोधिः परमं कष्टं, बोधिः सुखमनुत्तरम्॥ कुछ मनुष्य बोधि को प्राप्त कर संसार-भ्रमण से पराङ्मुख हो जाते हैं। अबोधि परम कष्ट है और बोधि अनुत्तर सुख। ॥ व्याख्या ॥ अबोधि दुःख है और बोधि सुख है। अबोधि का अर्थ-अज्ञान है और मिथ्याज्ञान भी है। अज्ञान से भी अधिक खतरनाक है मिथ्याज्ञान। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु अल्प ज्ञान है। मिथ्याज्ञान विपरीत ज्ञान है। संसार भ्रमण का मूल हेतु यही है। अबोधि संसार से विमुख नहीं करती। वह मानव को संसार की दिशा में ही लिए चलती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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