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________________ संबोधि २६१ २५. हव्यवाह प्रमध्नाति जीर्ण काष्ठं यथा ध्रुवम् । तथा कर्म प्रमध्नाति, मुनिरात्मसमाहितः ॥ 'जं अण्णाणी कम्मं खवेई बहुयावि वाससयसहस्सेहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेई उच्छासमेत्तेण ॥' अज्ञानी को जिन कर्मों के क्षय करने में लाखों वर्ष लगते हैं, वहां मनोवाक्काय से संयमित ज्ञानी उन कर्मों को श्वास मात्र में क्षय कर देता है। इससे संयम -संवर या निवृत्ति की महत्ता स्पष्ट अभिलक्षित होती है। महत्त्व क्रिया का नहीं है। महत्त्व है संयमयुक्त क्रिया का यह सूत्र प्रत्येक व्यक्ति के हृदय पटल पर अंकित रहना चाहिए। योगों (मन, वचन, काय) से संयम (गुप्ति) के अभाव में कष्ट बहुत उठाया जाता है, किंतु सार बहुत कम निकलता है। समग्र साधना-पद्धति प्रवृत्तियों के संघमन की है आत्मशासित साधक वह होता है जो बाहर से सर्वथा संयमित होकर आत्म ध्यान में प्रतिष्ठित हो गया है। जिसने पिंडस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान की यात्रा का अंत कर रूपातीत की यात्रा शुरू कर दी है, जिसके ध्यान के लिए अब बाहर के विषय - अवलंबन छूट चुके हैं। वह आत्म-समाधि-संपन्न साधक कर्मों को इतनी शीघ्रता से भस्मसात् कर देता है, जैसे कि अग्नि सूखे काष्ठ को क्षणभर में ही भस्मसात् कर देती है। २६. कर्मानुभावतो जीवः, परोक्षे द्वे प्रविद्येते अ. १०: संयतचर्या जिस प्रकार अनि जीर्ण काष्ठ को भस्म कर डालती है उसी प्रकार समाधियुक्त आत्मा वाला मुनि कर्मों को भस्म कर डालता है। || व्याख्या || नानागतिसु संशयस्तत्र गच्छति । जायते ॥ कर्म के अनुभाव से जीव नाना गतियों में परिभ्रमण करता है। नरक और स्वर्ग- ये दो परोक्ष हैं। परोक्ष के विषय में संशय उत्पन्न हो जाता है। इसलिए कहा है || व्याख्या || संशय का क्षेत्र प्रत्यक्ष नहीं है। मनुष्य और तिर्यंच गति जैसे प्रत्यक्ष है वैसे नरक और देव गति नहीं है। हालांकि मनुष्य व तिच गति भी स्थूल रूप से प्रत्यक्ष है, सूक्ष्म रूप से नहीं। इनमें भी संशय के कई कारण बन सकते हैं। नरक और देव परोक्ष होते हुए भी कुछ-कुछ स्थितियों में प्रत्यक्ष जैसे परिचय करा देते हैं सूक्ष्म शरीर के फोटो, सूक्ष्म जगत की विचित्र विचित्र घटनाएं पूर्वजन्म की स्मृतियां, सूक्ष्म शरीरों की स्थूल शरीर जैसी चेष्टाएं तथा अनुकूल व्यक्तियों का सहयोग व प्रतिकूलों का असहयोग आदि ऐसे कर्तव्य हैं जिनसे उनके अस्तित्व का स्पष्ट बोध हो जाता है। प्रत्यक्षद्रष्टा - आत्मज्ञानी आप्तपुरुषों का सहवास अथवा उनका उपदेश भी संशय के निराकरण में हेतु बनता है। आत्मद्रष्टाओं के लिए कुछ भी अप्रत्यक्ष नहीं है। वे सब कुद सहज देखते हैं और जैसा देखते हैं वैसा ही निरूपण करते हैं। विश्वास या श्रद्धा के वे ही एकमात्र केन्द्र होते हैं। इसलिए कहा है-वह सत्य है, निःशंकित है, परिपूर्ण है, अनुत्तर है, जिसका निरूपण जिनों- आत्मप्रष्टाओं ने किया है।' भगवान् महावीर इसी संदेह की निवृत्ति के लिए मेघ से कह रहे हैं कि 'नरक नहीं है, स्वर्ग नहीं है' इस प्रकार 'संज्ञा' अवधारणा या कल्पना न करे।' वे हैं यह असंदिग्ध हैं। इसका कारण है-तदनुरूप कर्मों का विपाक, फल। सत्कर्मों का फल स्वर्ग है और असत् कर्मों का फल नरक ।' दुःख और सुख कर्म का ही अनुभाग - विपाक है। २७. नरको नाम नास्तीति नैवं संज्ञां निवेशयेत् । स्वर्गोऽपि नाम नास्तीति नैवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ , 'नरक नहीं है' - इस प्रकार की अवधारणा न करे । 'स्वर्ग नहीं है' इस प्रकार की अवधारणा न करे। - || व्याख्या || मनुष्य प्रत्यक्ष में संदिग्ध नहीं होता। वह संदिग्ध होता है परोक्ष में । दृश्य में जितना विश्वास है उतना अदृश्य में नहीं; जबकि सत्य दोनों हैं। प्रत्यक्ष में सत्य का आग्रह करने वाला परोक्ष की सचाई को झुठला देता है। मनुष्य और तिबंध ये दोनों योनियों प्रत्यक्ष हैं, वैसे स्वर्ग और नरक नहीं लेकिन उनके प्रत्यक्ष न होने से वे नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मनुष्य के ज्ञान की एक सीमा होती है। वह इस सीमा से परे का विषय है। जिस व्यक्ति का आवरण हट जाता है, उसके लिए मनुष्य जैसा ही वह प्रत्यक्ष है इसलिए अपनी क्षमता को बढ़ाए न कि सत्य को झूठलाए भगवान् महावीर ने इसलिए अपने शिष्यों से कहा कि 'नरक और स्वर्ग नहीं है' ऐसा संज्ञान मत करो।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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