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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
॥ व्याख्या ॥ आत्महत्या प्रशस्त नहीं है। उसके पीछे जो हेतु है उसमें जिजीविषा का भाव प्रधान है। जिन कारणों से आत्महत्या की जाती है. उनकी पर्ति हो जाने पर वह रुक सकती है। आत्महत्या की ओर व्यक्ति तभी अग्रसर होता है ज स्वाभिमान पर चोट आती है, कोई भयंकर विपत्ति आ जाती है, गहरा आघात लगता है, जो चाहता है वह प्राप्त नहीं होता है-आदि। इन सबके मूल में राग-द्वेष प्रमुख हैं। किंतु जहां इनमें से कोई कारण उपस्थित न हो, व्यक्ति अपने नश्वर शरीर को अनुपयोगी मान राग-द्वेष से विमुक्त अवस्था में शरीर को छोड़ने का उपक्रम करता है, वह आत्महत्या नहीं है। आत्महत्या आवेश में होती है। आवेश या आवेग समाप्त हो जाने के बाद आप उसे मरने के लिए कहेंगे तो वह तैयार नहीं होगा। किंतु स्वेच्छापूर्वक शरीर के विसर्जन में कोई आवेश या आवेग नहीं है। मृत्यु चाहे आज आए या कल, उसे आप सर्वदा शांत और प्रसन्न पायेंगे। मृत्यु उसके लिए भयावह नहीं है और न पीड़ा का कारण है।
२२.यस्य किञ्चिद् व्रतं नास्ति, स जनो बाल उच्यते। जिसमें कुछ भी व्रत नहीं होता, वह मनुष्य 'बाल' कहलाता.. व्रताव्रतं भवेद् यस्य, स प्रोक्तो बालपण्डितः॥ है। जिसके व्रत-अव्रत-दोनों होते हैं-पूर्ण व्रत भी नहीं होता और
पूर्ण अव्रत भी नहीं होता, वह बाल-पंडित' कहलाता है। २३. पण्डितः स भवेत् प्राज्ञो, यस्य सर्वव्रतं भवेत्।। जिसके पूर्ण व्रत होता है वह प्राज्ञ पुरुष पंडित' कहलाता है। ___ सुप्तः सुप्तश्च जाग्रच्च, जाग्रदुक्तिविधानतः॥ पूर्वोक्त रीति के अनुसार पुरुषों के तीन प्रकार होते हैं : १. सुप्त,
२. सुप्त-जागृत, ३. जागृत।' २४.एवमधर्मपक्षेऽपि धर्माधर्मेऽपि कश्चन। पक्ष तीन होते हैं :-१. अधर्म-पक्ष, २. धर्माधर्म-पक्ष, ३. धर्मपक्षे स्थितः कश्चित्, त्रिविधो विद्यते जनः॥ धर्म-पक्ष। इन तीन पक्षों में अवस्थित होने के कारण पुरुष भी
तीन प्रकार के होते हैं : १. अधर्मी, २. धर्माधर्मी और ३. धर्मी।
॥ व्याख्या ॥ प्राणियों के इन तीन विकल्पों का आधार आंतरिक है। भेदों की मीमांसा यहां अभीष्ट नहीं है। साधक की दृष्टि अंतर्मुखी होती है। वह अंतर को देखता है। महावीर ने देखा-प्राणी अभी गहन अंधकार में पड़े हुए हैं। बहुत से मनुष्य भी तम की यात्रा पर चल रहे हैं, धर्म के प्रति उनमें कोई आकर्षण नहीं है। महावीर ने कहा-वे बाल हैं, बच्चे हैं, नादान हैं, अविवेकी हैं, वे संस्कारों के पाश में बद्ध हैं। उनका केन्द्र-बिन्दु बहिर्जगत् है।
दूसरे प्रकार के व्यक्तियों को वे कहते हैं-बाल-पंडित। ये ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें विवेक भी है और अज्ञान भी है। ये पूर्णतया सोये भी नहीं हैं और पूर्णतया जगे भी नहीं हैं। इनके जीवन में जागरण और निद्रा दोनों चल रहे हैं, कुछ जागते हैं और कुछ सोते हैं। जागरण शुरु तो हो जाता है किंतु उसका पूर्ण विकास नहीं होता। इस दशा में ममत्व, आसक्ति, राग, द्वेष, मोह, क्लेश आदि वृत्तियां उठती हैं, गिरती हैं। इसलिए इस अवस्था का नाम धर्म-अधर्म पक्ष, बाल-पंडित रखा है।
तीसरा पक्ष स्पष्ट है। यहां चेतना अकुशल वृत्तियों से हटकर कुशल में प्रविष्ट हो जाती है। साधक अंतर्जीवन के सघन-सागर में निमग्न रहता है। आत्म-स्मृति से प्रतिक्षण जुड़ा रहता है। संतों ने इस स्मरण को ही सार कहा है
कबिरां सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अन्त मध्य सुमिरन, बाकी है भ्रम जाल॥ यह यात्रा धर्म की है, अनासक्ति की है और सहजता की है। इसलिए इसे धर्म-पक्ष, 'पंडित' कहा है। १. अव्रती को सुप्त, व्रताव्रती को सुप्त-जागृत और सर्वव्रती को जागृत कहा जाता है।