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________________ २५९ ॥ व्याख्या ॥ जीवन से मरना भला, जो मर जाने कोय । मरना पहिले जो मरे, अजर-अमर सो होय ॥ कबीर ने कहा है-मरना अच्छा है अगर किसी को मरने की कला आ गई हो तो । और मृत्यु की कला यही है। कि मरने से भी पहिले व्यक्ति मृत्यु को देख ले। बस, मृत्यु खत्म हो गयी। महर्षि रमण के सम्पूर्ण जीवन का क्रांतिसूत्र मृत्यु-दर्शन ही है। एक बार वे छोटी उम्र में मरणासन्न हो गए। बचने की आशा नहीं थी । लेट गए और देखने लगे । शरीर मृतवत् निश्चेष्ट हो गया। हाथ पैर उठाने पर भी हिलते डुलते, उठते नहीं शांत स्थिति में शरीर को देखते रहे। देखते-देखते यह देख लिया कि शरीर मर चुका है। किन्तु देखने वाला (द्रष्टा ) अब भी जीवित है। मौत व्यर्थ हो गई। अजर-अमर की अनुभूति हो गई । संबोधि यहां न जीवन का मूल्य है और न मृत्यु का दोनों अनेकों बार हो चुके, किंतु मृत्यु का समुचित निरीक्षण नहीं किया, मृत्यु को जाना नहीं। जीवन का पता भी मृत्यु को जान लेने के बाद चलता है। सभी धर्म उस परम सत्य के साक्षात्कार की विधि हैं। वे मानव के मूल रूप की अभिव्यक्ति के आलंबन हैं। बुद्ध कहते हैं- 'जब तक तुम्हें ख्याल है कि तुम हो, तब तक तुम्हारा भय नहीं मिट सकता। यदि भय से मुक्त होना चाहते हो तो तुम पहले ही मान लो कि तुम हो ही नहीं। तुम इस तरह जीओ कि जैसे हो ही नहीं जिस क्षण यह अनुभव हो जाएगा, भय नहीं रहेगा।' महावीर ने इस अनुभूति के लिए कायोत्सर्ग प्रतिमा दी है। कायोत्सर्ग का अर्थ है देह के प्रति जो अनुराग है, उससे निवृत्त होना। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है-काय आदि पर द्रव्यों में स्थिरत्व की बुद्धि को छोड़कर जो निर्विकल्प रूप से आत्मा का ध्यान करता है वह कायोत्सर्ग में स्थित है। देह का बार-बार विसर्जन कर मृतवत् हो सत्य का साक्षात्कार करना ही कायोत्सर्ग प्रतिमा है। 'स्यूयून' साधक से किसी ने पूछा- ध्यान क्या है? स्यूयून ने कहा- ध्यान मिटा देने में है, स्वयं को मिटा देने में है। यदि तुम भी मुर्दे की भांति स्वयं को जीवित ही मिटा दो तो तुम ध्यान में हो ।' बनयान की कविता का पद है १९. अकामं नाम बालानां मरणं जायते मुहुः । पण्डितानां सकामं तु अल्पादल्पं सकृद् भवेत् ॥ 'जीते जी मृतवत् हो जाओ, पूर्णतया मृतवत् हो जाओ। और तब जो जी में आए करो, क्योंकि तब सब ठीक है।' जीवन और मृत्यु की श्रेष्ठता का परिमापक यंत्र संयम है। संयम का अर्थ है-आत्मकेन्द्रित होना, बाहरी वृत्तियों से सर्वथा उदासीन हो जाना। जिसे स्वयं के अतिरिक्त कहीं रस प्रतीत न होता हो, वह संयम का अधिकारी होता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु स्वयं की विस्मृति में कैसे होगी ? जीवन और मृत्यु श्रेष्ठ नहीं है, श्रेष्ठ है - संयम, स्वयं में जीना, स्वयं की स्मृति में जीना । २०. पतित्वा पर्वताद् वृक्षात् प्रविश्य ज्वलने जले। म्रियते मूढचेतोभिः अप्रशस्तमिदं भवेत् ॥ - २१. ब्रह्मचर्यस्य रक्षायै प्रशस्तं मरणं प्राहुः अ. १०: संयतचर्या कुर्यात् प्राणविसर्जनम् । रागद्वेषाऽप्रवर्तनात् ॥ बाल-असंयमी जीवों का बार-बार अकाम-मरण होता है। पंडित-संयमी जीवों का सकाम-मरण होता है और वह अधिक बार नहीं होता- कम से कम एक बार और उत्कृष्टतः पन्द्रह बार होता है, फिर वह मुक्त हो जाता है। मूढ चेतना वाले लोग पर्वत या वृक्ष से नीचे गिरकर, अग्नि या जल में प्रवेश कर मरते हैं, वह अप्रशस्तमरण- अकाममरण कहलाता है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए प्राणों का विसर्जन करना प्रशस्त मरण - सकाममरण कहलाता है, क्योंकि वहां राग-द्वेष की प्रवृत्ति नहीं होती।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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