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________________ आत्मा का दर्शन २६४ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ साधना का मूल स्रोत एक है। वह प्रत्येक साधक में भिन्नता नहीं देखता। भेद होता है बाहरी विशेषता के आधार पर। किसी साधक में श्रुत की विशेषता होती है, किसी में तप की, किसी में ध्यान की, किसी में निर्भयता की, किसी में विनय की, किसी में कष्ट-सहिष्णुता आदि की। कुछ अपनी साधना में व्यस्त रहते हैं और कुछ अपना और पराया दोनों का हित साधते हैं। यह सब रुचि-भेद है। इससे मूल में अंतर नहीं आता। बाहरी विशेषताओं को मूल मानने पर. भ्रांति हो जाती है। ३६. बुद्धा केचिद् बोधकाः स्युः, केचिद् बुद्धा न बोधकाः। आत्मानुकम्पिनः केचित्, केचिद् द्वयानुकम्पकाः॥ कुछ स्वयंबुद्ध भी होते हैं और दूसरों को बोध- उपदेश भी देते हैं। कुछ स्वयंबुद्ध होते हैं पर दूसरों को बोध नहीं देते। कुछ केवल आत्मानुकंपी होते हैं और कुछ उभयानुकंपी होते हैं। ३७. क्षपिताशेषकर्मा हि, मुनिर्भवाद् विमुच्यते। मुच्यते चान्यलिङ्गोऽपि, गृहिलिङ्गोऽपि मुच्यते॥ अशेष कर्मों का क्षय करने वाला मुनि भव से मुक्त होता है। मुक्त होने में आत्म-शुद्धि की प्रधानता है, लिंग-वेश की नहीं। जो वीतराग बनता है वह मुक्त हो जाता है, भले फिर वह अन्यलिंगी-जैनेतर साधु के वेश में हो या गृहलिंगी-गृहस्थ के वेश में हो। ॥ व्याख्या ॥ मुक्ति की आधारशिला है-आत्म-विशुद्धि। आत्म-शुद्धि के लिए वीतरागता की अपेक्षा है। राग-द्वेष से मुक्त वही होता है जो वीतराग है। आचार्य कहते हैं : सिताम्बरत्वे न दिगम्बरत्वे, न तर्कवादे न च तत्त्ववाद। . __न पक्षपाताश्रयणाच्च मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव॥ . 'मोक्ष न श्वेत वस्त्रों के पहनने में है, न वस्त्रों का त्याग करने में है, न तर्कवाद में है, न तत्त्वचर्चा में है और न पक्षपात का आश्रय लेने में है। मुक्ति है कषाय-विजय में।' राग, द्वेष और कषाय की स्थिति में मुक्ति नहीं होती, यह ध्रुव सिद्धांत है। गीता में कहा है-'जो लोग अभिमान और मोह से मुक्त हो गए हैं, जिन्होंने आसक्तियों को जीत लिया है, जो निरंतर अध्यात्म में लीन रहते हैं, जिनकी इच्छाएं शांत हो गई हैं, जो सुख-दुःखात्मक द्वन्द्वों से विमुक्त हैं और जो अमूढ़ हैं वे शाश्वत स्थान को पाते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में कहा है-'सिद्ध वे होते हैं जो शुद्ध होते हैं। शुद्धि में ही साधुता है, दर्शन है, ज्ञान है और मुक्ति है।' ___अमृतचन्द्राचार्य के शब्दों में भी यही है-आत्मा को अशुद्ध करने वाले राग, द्वेष आदि पर-द्रव्य हैं। जो इन्हें छोड़ स्व-आत्मा में रति करता है वह समस्त पर-द्रव्यों से मुक्त हो जाता है। फिर आत्म-ज्योति प्रकट होती है और चैतन्य के आलोक से वह भर जाता है, पूर्ण शुद्ध होकर फिर मुक्त हो जाता है। राग-द्वेष की मुक्ति के लिए आत्म-बल की अपेक्षा है। इसमें वर्ण, जाति, लिंग, वेश आदि का महत्त्व नहीं है। ये गौण हैं। मोक्ष अवस्था की स्थिति में प्रत्येक मुक्तात्मा में समानता होती है। मुक्ति का द्वार सबके लिए खुला है। ३८.प्रत्ययार्थञ्च लोकस्य, नानाविधविकल्पनम्। यात्रार्थ ग्रहणार्थञ्च, लोके लिङ्गप्रयोजनम्॥ लोगों को यह प्रतीत हो कि ये साधु हैं, इसलिए नाना प्रकार के वेश की परिकल्पना की गई है। जीवन-यात्रा-को निभाना और 'मैं साधु हूं', ऐसा ध्यान आते रहना-इस लोक में वेश-धारण के ये प्रयोजन हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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