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________________ संबोधि २६५ || व्याख्या || प्रश्न होता है कि मुनि के लिए वेश की क्या आवश्यकता है ? प्रस्तुत श्लोक में वेश धारण के तीन कारण बतलाये हैं:-१. लोक प्रतीति, २. संयम निर्वाह, ३. स्व-प्रतीति । ये तीनों कारण मुनि की बाह्य और आंतरिक पवित्रता के हेतु बनते हैं। १. मुनि को अपने स्व- वेश में देखकर लोगों को यह प्रतीति होती है कि यह 'मुनि' है। इसके साथ हमारा क्या कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है, आदि। २. संयम निर्वाह के लिए शरीर रक्षा आवश्यक होती है। जहां शरीर है उसके निर्वहन की भावना है, वहां वस्त्रों का अपना स्थान है। जो व्यक्ति निष्पतिकर्म हो जाता है, वह चाहे वस्त्र रखे या नहीं, यह उसकी अपनी इच्छा है। किन्तु जो शरीर को चलाता है, उसे उसकी रक्षा भी करनी पड़ती है। वस्त्र शरीर निर्वाह का एक उपाय है। ३. तीसरा कारण है - स्व-प्रतीति । यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। मुनि वेश में अपने को देखकर व्यक्ति के मन में यह अध्यवसाय निरंतर बना रहता है कि 'मैं साधु हूं, मुझे यह करना है, यह नहीं करना है। अपने अस्तित्व बोध का यह अनन्य उपाय है। इससे जागरूकता और अप्रमत्तता का प्रादुर्भाव होता है । ' - अ. १० : संयतचर्या ३९. अथ भवेत् प्रतिज्ञा तु, मोक्षसद्भावसाधिका । ज्ञानञ्च दर्शनं चैव चारित्रं चैव निश्चये ॥ यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा-संकल्प हो तो निश्चय दृष्टि से उसके साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। ॥ व्याख्या ॥ मोक्ष के लिए किन-किन चीजों की आवश्यकता है? सवस्त्र होना चाहिए या निर्वस्त्र ? यह प्रश्न गौण है। मोक्ष शरीर नहीं है। वस्त्र, भोजन, पानी आदि शरीर की पूर्ति के साधन हैं दर्शन और चारित्र का चरम विकास मोक्ष है। अतः अंतरंग साधन ये हैं ४०, संशयं परिजानाति, संसारं परिवेत्ति संशयं न विजानाति, संसारं परिवेत्ति सः । न ॥ و ४१. पूर्वोत्थिताः स्थिरा एके, पूर्वोत्थिताः पतन्त्यपि । नोत्थिता न पतन्त्येव भङ्ग शून्यश्चतुर्थकः ॥ मुक्ति आत्मा की पूर्ण शुद्धावस्था है। ज्ञान, वेश आदि बहिरंग साधन हैं। || व्याख्या || जिज्ञासा हमारे ज्ञान-परिवर्धन की कुंजी है वह बौद्धिकता की सूचना करती है। जिसमें जिज्ञासा नहीं है, उसमें ज्ञान का विकास भी नहीं है। जिज्ञासा को दबाने का अर्थ है ज्ञान को कटघरे में बंद रखना । जिसमें संशय - जिज्ञासा है, वह संसार को जानता है। जिसमें जिज्ञासा का अभाव है, वह संसार को नहीं जानता। कुछ पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और अंत तक उसमें स्थिर रहते हैं। कुछ पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और बाद में गिर जाते हैं। कुछ साधना के लिए न उद्यत होते हैं और न गिर हैं। इसका चतुर्थ भंग शून्य होता है बनता ही नहीं। ॥ व्याख्या ॥ व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं-१. पूर्वोत्थित और पश्चाद् स्थित। २. पूर्वोत्थित और पश्चाद् निपाती। ३. न पूर्वोत्थित और न पश्चाद् निपाती । आत्मा पर पूर्व संस्कारों का गहरा प्रभाव होता है। अच्छे संस्कार व्यक्ति को सहजतया अच्छाई की ओर खींच लेते हैं और बुरे संस्कार बुराई की ओर शुभ संस्कारी व्यक्ति ही साधना पर आरूढ़ हो सकते हैं, अशुभ संस्कारी नहीं साधना के लिए पवित्रता ही पहली शर्त है अशुभ संस्कारी व्यक्ति में वह नहीं होती। शुभ संस्कारी साधना पथ पर आने के बाद अपने संस्कारों को और अधिक पवित्र और सुदृढ़ बनाते चलते हैं अतः वे अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं होते। जो साधना क्षेत्र में प्रविष्ट होकर संस्कारों का निर्माण नहीं करते वे अशुभ संस्कारों के झंझावात में अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख पाते। वे साधना से परे हट जाते हैं जिनके संस्कारों में अशुभता की प्रबलता होती है, वे न साधना में आते हैं और न गिरते हैं। गिरते वे हैं जो चलते हैं। नहीं चलने वाले क्या गिरेंगे !
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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