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________________ आत्मा का दर्शन २६६ ४२. यत् सम्यक् तत् भवेन्मौनं, यन्मौनं सम्यगस्ति तत् । मुनिः मौनं समादाय, धुनीयाच्च शरीरकम् ॥ खण्ड - ३ जो सम्यक् - यथार्थ है, वह मौन - श्रामण्य है और जो मौन है, वह सम्यक् है। मुनि मौन को स्वीकार कर कर्मशरीर को प्रकंपित करे, शरीर मुक्त बने। || व्याख्या ॥ मुनि का कर्म मौन है। वह आत्मशुद्धिमूलक होने से सम्यक् है । एक कारण है और दूसरा कार्य। कार्य और कारण के अभेद दर्शन से सम्यक् को मौन और मौन को सम्यक् कहा है। मुनि का कर्म इसलिए सम्यक है कि उसमें राग, द्वेष, कषाय, मोह आदि का उपशम या क्षय होता है। मौन धर्म की समुपासना का फल है - स्थूल और सूक्ष्म शरीर से मुक्त होना । सूक्ष्म शरीर का जब अंत हो जाता है, तब भवचक्र रुक जाता है। समस्त सत् और असत् इच्छाओं से सर्वथा आत्मा बिलग हो जाती है अंत ही जन्म का अंत है । इच्छाओं का 'सत्य मौन में घटित होता है' - यह समस्त ऋषियों का अनुभूत स्वर है, और यह भी अनुभूत वाणी है कि सत्यवान् व्यक्ति मौन को उपलब्ध हो जाता है। इस दृष्टि से मौन और सत्य दोनों परस्पराश्रित है एक दूसरे के अभिन्न मित्र हैं। सम्यक का अर्थ है सत्य सत्य यानि अस्तित्व की अनुभूति का ज्ञान आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है-साधक बाह्य वचन व्यवसाय का विसर्जन कर अंतरंग में होने वाले वाक् प्रपंच का भी विसर्जन करे। परमात्म-प्रदीप को प्रकट करने की यह संक्षिप्त योगविधि है।' वाक्जाल से मुक्त होना साधक के लिए अत्यंत अपेक्षित है। अन्यथा उसका समग्र शक्ति प्रवाह व्यर्थ अंतर्वाणी और बाह्यवाणी के व्यापार में व्यय हो जाता है। मौन केवल शारीरिक तनाव की मुक्ति के लिए नहीं है, यह उसका क्षुद्रतम उपयोग है उसकी वास्तविक उपादेयता है-चैतन्य का साक्षात्कार | जहां स्पंदन शांत हो जाते हैं, उस क्षण में हम स्वयं के भीतर होते हैं। मौन उसी चैतन्य की अनुभूति के लिए है। उसके अनेक भेद हैं। अंतर्मौन तक पहुंचने की ये प्राथमिक सीढ़ियां हैं। यथार्थ मौन वही है जहां साधक की अंतर्वाणी मुखरित. हो जाती है और बाह्य सर्वथा शांत मौन के क्षणों में फिर सत्य-अस्तित्व बोलता है, वह नहीं । उसका अपना 'मैं' 'अहं' मिट जाता है। वह उसी परम सत्य की एक कड़ी बन जाता है। मौन साधकों के लिए अंतर्मोन का अभ्यास उपादेय है। अन्यथा जहां उन्हें पहुंचना है वहां पहुंच पाना असंभव है। अंतर्मोन का अर्थ है- विचार नियमन तथा विचार शून्यता विचारों के निग्रह के लिए आपको विचारों के प्रति जागरुक या साक्षी होना होगा। जैसे-जैसे जागरण बढ़ेगा, विचारों का सिलसिला टूटता चला जाएगा। एक विचार से दूसरे विचार के उत्पन्न होने के मध्य दूरी का अनुभव होगा और इसी से शनैः-शनैः आप शून्य में प्रवेश कर जाएंगे। विचार नियमन का इससे अधिक सरल और कारगर उपाय नहीं है। यह स्पष्ट है कि विचारों का नियंत्रण दुरूह है, किन्तु साधक के आत्म-बल, दृढ भावना, श्रद्धा और सतत अभ्यास के समक्ष उसकी दुरूहता स्वयं सरलता में परिणत होती चली जाती है। साधक केवल जो जैसा आता है उसे उसी रूप में शांत समभाव से देखता रहे, न विचारों को लाने का प्रयास करे और न उन्हें हटाने का बस, वह तो उनके प्रति जागृत रहे। ४३. स्वयंबुद्ध मया बुद्धं बोधितत्त्वं सुदुर्लभम् । शरण्य! शरणं देहि, येन बोधिर्विशुद्धयति ॥ हे स्वयंबुद्ध मैंने सुदुर्लभ बोधितत्त्व को जान लिया है शरण्य! मुझे शरण दो, जिससे मेरी बोधि विशुद्ध बन जाए। ॥ व्याख्या ॥ बोधि सुदुर्लभ है, किन्तु स्वयंबुद्ध भगवान महावीर के सहवास, सान्निध्य से उसके लिए सुलभ बन गई। 'सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् सत्य को उपलब्ध पुरुषों की संगति क्या नहीं करती है? वह क्षुद्र को महान् बना देती है, भ्रांत को अभ्रान्त बन देती है, पथ-भ्रष्ट को मार्ग में सुस्थिर कर देती है और नर को नारायण, अशिव को शिव बना देती है। मेघ शिव की कोटि में आ गया। उसके रोम-रोम से आनंद का स्रोत फूट पड़ा। उसने कहा- प्रभो ! मैं अब आपकी शरण में हूं, मेरी पतवार आपके हाथों में है। मुझे आप ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि मेरी बोधि सदा विशुद्ध बनी रहे । उसमें कहीं कोई मलिनता प्रविष्ट न हो जाए। बस मेरा आपसे यही अनुनय है। इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे संयतचर्यानामा दशमोऽध्यायः । ...
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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