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________________ संबोधि २४३ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा आचरण करता है। वह विभाव को अपना मानता है और वहीं चिपका रहता है। स्वभाव की ओर उसकी दृष्टि स्फुरित नहीं होती। आचार्य यशोविजयजी कहते हैं कि मोह के इस मंत्र ने समग्र जगत् को अंधा बना रखा है। पर-भावों में यह मेरा है, मैं इसका हूं, इसी को उलटकर यों कह दिया जाए कि यह मेरा नहीं है और मैं इसका नहीं हूं तो वह व्यक्ति मोहजित् हो जाता है। . ११.यथार्थनिर्णयः सम्यग-ज्ञानं प्रमाणमिष्यते। वस्तु का यथार्थ निर्णय करने वाला सम्यग् ज्ञान 'प्रमाण' दृष्टिः प्रामाणिकी चैषा, दृष्टिरागमिकी परा॥ कहलाता है। यह प्रमाण-मीमांसा की दृष्टि है और आगमिक दृष्टि इससे भिन्न है। १२.सम्यग्दृष्टेरवबोधो, भवेज्ज्ञानं तदीक्षया। सम्यग-दृष्टि व्यक्ति का ज्ञान सत-पात्र की अपेक्षा से धुतमोहो निजं पश्यन्, सम्यग्दृष्टिरसौ भवेत्॥ सम्यग्-ज्ञान कहलाता है। जिसका दर्शनमोह विलीन हो गया है और जो आत्मा को देखता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है। ॥ व्याख्या ॥ अनंतानुबंधी मोह का अनुदय होने पर सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है। सम्यक् दृष्टि में 'स्व' और 'पर' का विवेक जागृत हो जाता है। वह 'स्व' को जान लेता है, 'पर' में उसकी अभिरुचि नहीं होती। गृहस्थ जीवन में रहता हुआ भी वह निर्लिप्त-सा जीवन जीता है। सम्यक्दृष्टि जीवड़ा, करै कुटुम्ब प्रतिपाल। अंतर में न्यारा रहै, (जिम) धाय खिलावै बाल॥ सम्यक्दृष्टि अंतरात्मा है। वह बाहरी क्रिया की प्रतिक्रिया अपने ऊपर नहीं होने देता। वह कार्य करता हुआ भी मन से पृथक् रहता है। समाधिशतक में पूज्यपाद लिखते हैं-बुद्धि में आत्मा के अतिरिक्त किसी भी कार्य को चिरकाल तक टिकाए न रखें। आवश्यकतावश यदि कोई कार्य करना हो तो शरीर और वाणी से करें, किन्तु मन का संयोजन न करें। अपने कार्य के लिए कुछ कहना हो तो वह कहकर उसको भूल जाएं। सुखी और सरल जीवन जीने की इससे बढ़ कर और कोई कला नहीं है। मनुष्य इस संभव को असंभव मान परिस्थितियों के हाथों में अपना अस्तित्व सौंप देता है। मनुष्य स्वयं अपना निर्माता है। सम्यग्दर्शन और कुछ नहीं, स्व का निर्माण है, दर्शन है। १३.पदार्थज्ञानमात्रेण, न ज्ञानं सम्यगुच्यते। पदार्थों को जान लेने मात्र से ज्ञान को सम्यग्ज्ञान नहीं कहा आत्मलीनस्वभावं यत्, तज्ज्ञानं सम्यगुच्यते॥ जा सकता। जिस ज्ञान का स्वभाव आत्मा में लीन होना है, वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है। ॥ व्याख्या ॥ . विभिन्न व्यक्तियों का विभाग किया जाए तो वे दो रूपों में विभक्त हो सकते हैं-बौद्धिक-ज्ञानी और आत्मज्ञानी। बौद्धिक ज्ञान की दृष्टि से एक साधक दुर्बल हो सकता है, और आत्मज्ञान की अपेक्षा से एक बुद्धिजीवी भी। बौद्धिक ज्ञान आत्मा की दृष्टि में हेय है। वह व्यक्ति को छोटे-छोटे घरौंदों में बांधता है; जबकि आत्मज्ञान मुक्त करता है। बौद्धिक ज्ञान एक प्रकार का आवरण है, जो आत्मा का स्पष्ट या अस्पष्ट दर्शन भी नहीं करा सकता। अज्ञान की कारा से मुक्त होने पर शिष्य गा उठता है-मैं इसलिए गुरु को नमस्कार करता हूं, जिन्होंने अज्ञान-तिमिर से अंधे 'व्यक्तियों की आंखों में ज्ञान-रूपी अंजन आंज कर दिव्य चक्षु प्रदान किए हैं। जो ज्ञान अज्ञान को नष्ट नहीं करता वह ज्ञान ही नहीं है। दवा रोग-नाश के लिए दी जाती है। यदि वह रोग को बढ़ाये तो उसका क्या प्रयोजन है? इसी प्रकार यदि ज्ञान मुक्त-स्वतंत्र नहीं करता है तो वह ज्ञान भी क्या है ? 'सा विद्या या विमुच्यते'-विद्या वही है जो व्यक्ति को बंधनों से मुक्त करे। इसलिए वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान की कोटि में आता है, जो आत्मलीन होकर आत्मा को बंधन-मुक्त करता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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