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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३,
७. आवारकघनत्वस्य, तारतम्यानुसारतः।
प्रकाशी चाऽप्रकाशी च, सवितेव भवत्यसौ॥
आवरण की सघनता के तारतम्य के अनुसार यह आत्मा सूर्य की भांति प्रकाशी और अप्रकाशी होता है।
८. उभयालम्बनं तत्तु, संशयज्ञानमुच्यते।
वेदनं विपरीतं तु, मिथ्याज्ञानं विपर्ययः॥
___ वह खंभा है या पुरुष-इस प्रकार का उभयालंबी ज्ञान 'संशयज्ञान' कहलाता है। जो पदार्थ जैसा है, उससे विपरीत जानना विपर्यय नामक मिथ्याज्ञान है।
९. तार्किकी दृष्टिरेषाऽस्ति, दृष्टिरागमिकी परा। यह तार्किक दृष्टि का निरूपण है। आगमिक दृष्टि का निरूपण मिथ्यादृष्टेभवज्ज्ञानं, अज्ञानं तदपेक्षया॥ उससे भिन्न है। उसके अनुसार मिथ्यादृष्टि अथवा असत्-पात्र की
अपेक्षा से वह ज्ञान अज्ञान कहलाता है।
॥ व्याख्या ॥ आत्म-ज्ञान निर्धान्त होता है। वह परापेक्ष नहीं है। जहां दूसरों की अपेक्षा रहती है. वहां न्यूनता भी रहती है। साधन, क्षेत्र आदि की अनुकूलता में वस्तु का परिज्ञान सम्यक् हो सकता है। लेकिन जहां कुछ कमी रहती है, वहां वह सम्यक् नहीं होता। संशय और विपरीत ज्ञान इसलिए सम्यक् ज्ञान की कोटि में नहीं आते। यह निरूपण दार्शनिक है, आगमिक-शास्त्रीय नहीं।
आगम की भाषा में जो मिथ्यादृष्टि है, वह सम्यग् ज्ञान का पात्र नहीं है; क्योंकि उसे स्व-भाव में आनंद नहीं आता। मिथ्यादृष्टि के ज्ञान-चेतना होने का निषेध पंचाध्यायी में मिलता है। ज्ञान अपने आप में न सम्यक् होता है और न असम्यक्। वह पात्र की अपेक्षा से वैसा बनता है। ___ जो व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होगा उसका ज्ञान भी मिथ्या होगा और जो सम्यक्दृष्टि होगा उसका ज्ञान भी सम्यक् होगा। ज्ञान व्यक्ति की पात्रता पर निर्भर करता है।
आगमों में कहा है कि एक ही श्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्या और सम्यक्दृष्टि के लिए सम्यक् बनता है-परिणत होता है।
इसीलिए जैन परंपरा में 'दर्शन' (दृष्टि) की विशुद्धि पर बहुत बल दिया है। जिसका दर्शन सही नहीं होता उसका ज्ञान भी सही नहीं होता। १०.आत्मीयेषु च भावेषु, नात्मानं यो हि पश्यति। जो आत्मीय भावों में आत्मा को नहीं देखता और तीव्र तीव्रमोहविमूढात्मा, मिथ्यादृष्टिः स उच्यते॥ मोह-अनंतानुबंधी कषाय के उदय से जिसकी आत्मा विमूढ है,
वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है।
॥ व्याख्या ॥ मोह-कर्म की सोलह मुख्य कर्म-प्रकृतियां हैंअनंतानुबंधी-क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ। प्रत्याख्यानी-क्रोध, मान, माया, लोभ। संज्वलन-क्रोध, मान, माया, लोभ।
मिथ्यादृष्टि में अनंतानुबंधी मोह का तीव्र उदय रहता है। मोह की अल्प मात्रा भी आत्म-विकास में बाधक है। जहां तीव्र मोह होता है, वहां आत्म-विकास का स्वप्न देखना भी असंभव है।
मोह आत्मा को विमूढ़ किए रखता है। विमूढ़ व्यक्ति न सम्यक् देखता है, न सम्यक् जानता है और न सम्यक