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संबोधि.
२४१ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा ३. नैतद् विकुरुते लोकान्, नापि संस्कुरुते क्वचित्। यह आवरण जीवों को न विकृत बनाता है और न संस्कृत।
केवलं सहजालोकं, आवृणोति निजात्मनः॥ यह केवल अपनी आत्मा के सहज प्रकाश को ढकता है।
१. ज्ञानस्यावरणं यावद्, भावशुद्ध्या विलीयते। भावों की विशुद्धि के द्वारा जितना ज्ञान का आवरण अव्यक्तो व्यक्ततामेति, प्रकाशस्तावदात्मनः॥ विलीन होता है, उतना ही आत्मा का अव्यक्त प्रकाश व्यक्त हो
जाता है।
५. पदार्थास्तेन भासन्ते, स्फुटं देहभृताममी।
ज्ञानमात्रमिदं नाम, विशेषस्याऽविवक्षया।।
आत्मा के उस प्रकाश से संसार के ये पदार्थ स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होते हैं। यदि उसके विभाग न किए जाएं तो उस प्रकाश को केवलज्ञान ही कहा जा सकता है।
. ॥ व्याख्या ॥ ज्ञान के स्वरूप को समग्र दृष्टिकोण से देखें तो वह एक है। उसके विभाग नहीं होते। जहां विभाग किये जाते हैं वहां उसका प्रकाश कुछ सीमाओं में बंध जाता है। बिजली का प्रकाश बल्ब की ही शक्ति पर निर्भर करता है। वैसे ही ज्ञान आवरण की तारतमता पर आधारित है। वह ज्ञान है लेकिन पूर्ण विशुद्ध नहीं। अविशुद्धि के आधार पर उसके पांच विभाग होते हैं। पांचवां विभाग पूर्ण शुद्ध है।
१. मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान।
२. श्रुतज्ञान-शब्द, संकेत और स्मृति से होने वाला ज्ञान। : ३. अवधिज्ञान-मूर्त द्रव्यों को साक्षात् करने वाला ज्ञान। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से इसकी अनेक अवधियां-मर्यादाएं हैं, इसलिए इसे अवधिज्ञान कहा जाता है।
४. मनःपर्यवज्ञान-मन की पर्यायों को साक्षात् जाननेवाला ज्ञान। इससे दूसरे के मन को पढ़ा जा सकता है।
५. केवलज्ञान-पूर्ण शुद्ध ज्ञान। ज्ञानावरणीय कर्म के पूर्ण क्षय होने पर पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जाता है। उस स्थिति में आत्मा के लिए कोई अज्ञेय नहीं रहता। आवत दशा में ज्ञान अपूर्ण रहता है। सूर्य के साथ इसकी तुलना घटित है। जैसे बादलों से ढके हुए सूर्य का प्रकाश स्पष्ट नहीं होता और बिना बादलों के प्रकाश स्पष्ट होता है, वैसे आवृत दशा. में आत्मा का ज्ञान स्पष्ट नहीं होता। ज्यों-ज्यों आवरण हटता है, त्यों-त्यों प्रकाश होता जाता है। - 'केवल' 'शब्द के पांच अर्थ हैं-असहाय, शुद्ध, सम्पूर्ण, असाधारण और अनंत।
केवलज्ञान का विषय सब द्रव्य और पर्याय हैं। कुछ आचार्य इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि केवलज्ञानी वह है जो आत्मा को सर्वरूपेण जानता है।
- उपर्युक्त पांच ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान परोक्ष और अंतिम तीन प्रत्यक्ष ज्ञान हैं। जो ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष होता है, वह परोक्ष और जो आत्म-सापेक्ष होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है।
वस्तुवृत्त्या ज्ञान एक ही है-केवलज्ञान। आवरणों की अपेक्षा से उसके पांच भेद होते हैं। जब आवरण पूर्ण रूप से टूट जाता है तब सम्पूर्ण ज्ञान- केवलज्ञान प्रकट हो जाता है।
६. आत्मा ज्ञानमयोऽनन्तं, ज्ञानं नाम तदुच्यते।
अनन्तान् गुणपर्यायान, तत्प्रकाशितुमर्हति॥
आत्मा ज्ञानमय है। उसका ज्ञान अनन्त है। वह अनन्त गुण और पर्यायों को जानने में समर्थ है।
॥ व्याख्या ॥ गुण-द्रव्य का सहभावी धर्म, अविच्छिन्न रूप से द्रव्य में रहने वाला धर्म। गुण द्रव्य से कभी पृथक् नहीं होता। पर्याय-द्रव्य की परिवर्तनशील अवस्थाएं।