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________________ मिथ्या - सम्यग् - ज्ञान-मीमांसा ज्ञेय अनंत है और ज्ञान भी अनंत है फिर भी हर व्यक्ति में अनंत ज्ञान का विकास नहीं है। जिसका ज्ञान सीमित है, उसके लिए ज्ञेय भी सीमित हो जाता है। यह सीमा करने वाला है आवरण। आवरण की तरतमता का अर्थ है ज्ञान के विकास की तरतमता जितना आवरण, उतना अज्ञान जितना आवरण का विलय, उतना ज्ञान का विकास। स्वरूप की दृष्टि से ज्ञान प्रमाण होता है। विषय ग्रहण की दृष्टि से वह प्रमाण भी होता है, अप्रमाण भी होता है, सम्यग् भी होता है, मिथ्या भी होता है। सम्यग् ज्ञान और सम्यग् दर्शन मनुष्य को विकास के शिखर तक ले जाते हैं। ज्ञान विकास का आदि-बिन्दु है । वह क्रिया के साथ जुड़कर व्यक्ति को शिखर तक पहुंचा देता है। प्रस्तुत अध्याय में ज्ञान और अज्ञान की विविध अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। मेघः प्राह १. ज्ञानं प्रकाशकं तत्र, मिथ्यासम्यक्त्वकल्पना । क्रियते कोऽत्र हेतुः स्याद, बोद्धुमिच्छामि संप्रति ॥ मेघ बोला- ज्ञान प्रकाश करने वाला है। फिर मिथ्या ज्ञान और सम्यग्ज्ञान ऐसा जो विकल्प किया जाता है, उसका क्या कारण है? अब मैं यह जानना चाहता हूं। ॥ व्याख्या || डेल्फी के मोनूर में देववाणी हुई कि सुकरात महान् ज्ञानी है। एथेंस वासी इससे बहुत प्रसन्न हुए। वे सुकरात के पास आए। उन्होंने देववाणी के संबंध में बताया। सुकरात ने कहा- नहीं, मैं अज्ञानी हूं। मैं जब नहीं जानता था तब मैं अपने को ज्ञानी समझता था और जब से जानने लगा हूं तब से अपने को अज्ञानी समझता हूं।' एक यह अज्ञान है और एक अज्ञान ज्ञान के पूर्व का होता है। दोनों में बड़ा अन्तर है ज्ञान के पूर्व का अज्ञान ज्ञान का आवरण है, ज्ञान का अभाव है और ज्ञान के अनंतर का अज्ञान आवरण या अभाव नहीं है। किन्तु नहीं जानना है। जो देखा है, अनुभव किया है, जाना है वह इतना महान् है कि उसके संबंध में कहना कठिन है। जिस पर अज्ञान का आवरण अधिक होता है उसे विवेक नहीं होता। अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ना उसके लिए अशक्य होता है। वह तमोमय जीवन जीता है। वह नारकीय जीवन है। इसलिए संतजनों ने मानव को आलोक की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा- जो उस परम सत्य को जान लेता है उसके हृदय की ग्रंथि भिन्न हो जाती है, संशय छिन्न हो जाते हैं और समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं। 'नाणं पयासकरं' ज्ञान प्रकाशक है, यह बहुत सारवान् सूत्र है। सम्यग्ज्ञान के आलोक में जन्म-जन्मान्तरों का संचित तम एक क्षण में नष्ट हो जाता है। भगवान् प्राह २. ज्ञानस्यावरणेन स्याद, अज्ञानं तत्प्रभावतः । अज्ञानी नैव जानाति, वितथं वा यथातथम् ॥ भगवान् ने कहा- ज्ञान पर आवरण आने से अज्ञान होता है। उसके प्रभाव से अज्ञानी जीव यथार्थ अथवा अयथार्थ - कुछ भी नहीं जान पाता।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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