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________________ आत्मा का दर्शन २४४ खण्ड-३ १४. अनन्तधर्मकं द्रव्यं, ज्ञेयं धर्मावुभौ स्फुटम्। अनन्त धर्मात्मक-अनन्त विरोधी युगलात्मक द्रव्य ज्ञेय होता सामान्यञ्च विशेषश्च, द्रव्यं तदुभयात्मकम्॥ है। अनन्त धर्मों में दो धर्म प्रमुख हैं-सामान्य और विशेष। द्रव्य केवल सामान्यात्मक अथवा केवल विशेषात्मक नहीं होता। वह उभयात्मक-सामान्य-विशेषात्मक होता है। १५.सामान्यग्राहकं विशेषग्राहकं ज्ञानं, संग्रहो नय ज्ञानं, व्यवहारनयो इष्यते। मतः॥ जो सामान्य को ग्रहण करता है, जानता है, वह संग्रह नय कहलाता है। जो विशेष को ग्रहण करता है, जानता है, वह व्यवहार नय कहलाता है। १६.उभयग्राहकं ज्ञानं, नैगमो नय इष्यते। सामान्यञ्च विशेषश्च, यतो भिन्नो न सर्वथा॥ जो सामान्य और विशेष-दोनों को ग्रहण करता है, जानता है, वह नैगम नय है। इसका तात्पर्य है-सामान्य और विशेष सर्वथा भिन्न नहीं हैं। जापा १७.वर्तमानक्षणग्राहि, ऋजुसूत्रं नयो भवेत्। शब्दाश्रयास्तु शब्दाद्याः, पर्यायमाश्रिताः नया॥ जो वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्र नय है। शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत-ये तीनों शब्दाश्नायी पर्यायार्थिक नय हैं। १८.पूर्व निक्षिप्यते वस्त. तन्नये नाधिगम्यते। प्रमाणेनाऽपि वीक्षा स्याद, सकलादेशमाश्रिता॥ पहले वस्तु का निक्षेप-पर्याय के अनुरूप बाह्य विन्यास किया जाता है। फिर उसे नय के द्वारा जाना जाता है। प्रमाण के द्वारा होने वाला वस्तु का ज्ञान सकलादेश' कहलाता है। १९.नयदृष्टिरनेकान्तः, स्याद्वादस्तत्प्रयोगकृत्। विभज्यवाद इत्येष, सापेक्षो. विदुषां मतः॥ वस्तु के एक धर्म-विशेष को जानने वाली नयदृष्टि का नाम है अनेकांत। उसका वचनात्मक प्रयोग स्यादवाद, विभज्यवाद अथवा सापेक्षवाद है। ॥ व्याख्या ॥ पदार्थ अपने में कितने तथ्यों को समेटे हुए हैं, यह जानना सहज नहीं है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी असफल रहे हैं। उसके विराट् दर्शन के सामने वे बौने साबित हुए हैं। भले, वे हार माने या न मानें किन्तु इतना स्पष्ट है कि वे उसकी पूर्ण थाह नहीं पा सकते। उसकी थाह पाने का एक ही मार्ग है कि हमारे पास पूर्ण ज्ञान हो। पूर्ण ज्ञान-कैवल्य ज्ञान में वस्तु का संपूर्ण रूप प्रतिभासित हो सकता है। आत्मद्रष्टाओं ने उसे जाना है, लेकिन उसके अनंत धर्मों को प्रतिपादन में वे भी समर्थ नहीं हुए है। इसका कारण बहुत स्पष्ट है कि वाणी सीमित है, शब्द सीमित है वह वस्तु में स्थित अनंत धर्मों का प्रतिपादन नहीं कर सकता है। प्रत्येक द्रव्य अपने में अनंत विरोधी-अविरोधी धर्मों-स्वभावों को लिए हुए हैं। उसमें सामान्य धर्म भी है और विशेष भी, वह नित्य भी है, अनित्य भी है। वह शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। वह है भी और नहीं भी है। इस प्रकार उसमें अनंत धर्म-स्वभाव हैं। लेकिन ये सब सापेक्षदृष्टि से यथार्थ हैं। जिस दृष्टि से 'सत्' है उस दृष्टि से असत् नहीं है, जिस दृष्टि से असत् है उस दृष्टि से सत् नहीं है। सत् की दृष्टि से सत् है और असत् की दृष्टि से असत् हैं। इसी प्रकार सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य, भेद-अभेद आदि जिज्ञासाओं का शमन किया जा सकता है। वृक्षत्व धर्म की अपेक्षा से सभी वृक्ष समान हैं, चेतन धर्म की अपेक्षा सभी जीव समान हैं, अचेतनत्व की दृष्टि से
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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