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आत्मा का दर्शन
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खण्ड
आर्तध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं
४५.अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा१.कंदणता २.सोयणता ३. तिप्पणता ४. परिदेवणता।
१. आक्रंदन करना। ३. आंसू बहाना।
२. शोक करना। ४. विलाप करना।
रौद्रध्यान ४६.रोहे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा
१. हिंसाणुबंधि
२. मोसाणुबंधि ३. तेणाणुबंधि ४. सारक्खणाणुबंधि।
रौद्रध्यान के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं१. हिंसानुबंधी-जिसमें हिंसा का अनुबंध-सत
प्रवर्तन हो। २. मृषानुबंधी-जिसमें मृषा का अनुबंध हो। ३. स्तेयानुबंधी-जिसमें चोरी का अनुबंध हो। ४. संरक्षणानुबंधी-जिसमें विषय के साधनों
संरक्षण का अनुबंध हो।
रौद्रध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं
४७.रुहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं ।
जहा१. ओसण्णदोसे २. बहुदोसे
३. अण्णाणदोसे
१. उत्सन्नदोष-प्रायः हिंसा आदि में प्रवृत्त रहना। २. बहुदोष-हिंसा आदि की विविध प्रवृत्तियों
संलग्न रहना। ३. अज्ञानदोष-अज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृ
रहना। ४. आमरणांत दोष-मारणांतिक हिंसा में प्रव
रहना।
४. आमरणंतदोसे।
धर्म्यध्यान ४८.धम्मे झाणे चउबिहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं
जहा
धर्म्यध्यान चार पदों-स्वरूप, लक्षण, आलंबन और अनुप्रेक्षा में अवतरित होता है। उसके चार प्रकार प्रज्ञा
१. आणाविजए
२. अवायविजए
३. विवागविजए
१. आज्ञा विचय-अतीन्द्रिय विषय को ध्येय बन
उसमें एकाग्र होना। २. अपाय विचय-राग-द्वेष आदि दोषों के उत्पनि
एवं क्षय को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना। ३. विपाक विचय-कर्म फल को ध्येय बनाकर
उसमें एकाग्र होना। ४. संस्थान विचय-विविध पदार्थों की विभिन
आकृतियों तथा उनकी विभिन्न पर्यायों को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होना।
४. संठाणविजए।