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________________ आत्मा का दर्शन खण्ड-५ १२४. एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहानायं, विहरामि अहं मुणी॥ (गौतम ने केशी से कहा-) 'एक अविजित आत्मा ही शत्रु है। कषाय और इन्द्रियां शत्रु हैं। हे मुने! मैं उन्हें जीत कर नीति के अनुसार विचरण करता हूं।' १२५. जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ॥ (नमि राजर्षि ने इन्द्र से कहा-) जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा यदि वह अपने आपको जीतता है, यह उसकी परम विजय है। १२६. अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सहमेहए। स्वयं अपने से ही युद्ध करो। बाहरी युद्ध से तुझे क्या? अपने से अपने को जीत कर ही मनुष्य सुख पाता है। १२७. अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा ह खलु दुइमो। अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य॥ . आत्मा को ही अनुशासित करना चाहिए, क्योंकि आत्मा पर ही अनुशासन करना कठिन है। अनुशासित आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुखी होता है। १२८. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य॥ अच्छा यही है कि मैं संयम और तप के द्वारा अपने आपको अनुशासित करूं। दूसरे लोग बंधन और वध के द्वारा मुझ पर अनुशासन करें-यह अच्छा नहीं है। १२९. एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं॥ एक स्थान से निवृत्ति और एक स्थान में प्रवृत्ति करे। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करे। १३०. रागहोसं य दो पावे, पावकम्म पवत्तणे। राग और द्वेष-ये दो पाप पापकर्म के प्रवर्तक हैं। जो जे भिक्खू संभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले॥ भिक्षु इनका सदा निरोध करता है, वह मंडल (संसार) में नहीं रहता-मुक्त हो जाता है। १३१. नाणेण य झाणेण य, तवोबलेण य बला निरुब्भंति। इंदियविसय-कसाया, धरिया तुरगा व रज्जूहिं॥ __ ज्ञान, ध्यान और तपोबल-इस साधना की सामर्थ्य से इन्द्रिय-विषयों और कषायों को निगृहीत किया जाता है जैसे कि लगाम के द्वारा अश्व को। १३२. उवसामं पुवणीता, गुणमहता जिण-चरित्त-सरिसं पि। पडिवातेंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे। उपशम श्रेणी में आरूढ अर्हत के समान चारित्र वाले महागुणी मुनि भी कषाय के द्वारा प्रतिपतित हो जाते हैं (गिर जाते हैं) फिर सराग मुनियों का तो कहना ही क्या?
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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