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________________ समणसुतं ११५. जह सील-रक्खयाणं, पुरिसाणं णिंदिदाओ महिलाओ । तहसील- रक्खयाणं, ११६. किं पुण गुण-सहिदाओ, महिलाणं णिंदिदा पुरिसा ॥ इत्थीओ अत्थि वित्थड - जसाओ । णरलोग देवदाओ, देवेहिं वि वंदणिज्जाओ ॥ ११७. तेल्लोक्काडवि - डहणो, ६६५ कामग्गी विसय-रुक्ख पज्जलिओ । जोव्वणतणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हवइ धण्णो ॥ ११८. जा जा वच्चइ रयणी, न सा पंडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जम्ति राइओ ॥ १२१. अप्पा जाणइ अप्पा, १९. जहा यतिणि वणिया, मूलं घेत्तूण निम्गया । एगोत्थ लहई लाहं, एगो मूलेण आगओ ॥ १२०. एगो मूलं पि हारिता, आगओ तत्थ वाणिओ । ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह ॥ अप्पा करेइ तं तह, जहट्ठिओ अप्पसक्खिओ धम्मो । जह अप्पा सुहावहो होइ ॥ संयम सूत्र २२. अप्पा गई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहाणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ १३. अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिअ सुपट्ठिओ ।। अ. १ : ज्योतिर्मुख जैसे शील- रक्षक पुरुषों के लिए स्त्रियां निन्दित हैं, वैसे ही शील रक्षिका स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दित हैं। स्त्री पुरुष की और पुरुष स्त्री की काम-वासना के उभरने में निमित्त बनता है, इस दृष्टि से विरोधी लिंग को निन्दित कहा गया है। किन्तु ऐसी भी शीलगुण सम्पन्न स्त्रियां हैं, जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। वे मनुष्य-लोक की देवता हैं और देवों के द्वारा वन्दनीय हैं। विष वृक्ष से प्रज्वलित होने वाली कामाग्नि तीन लोकरूपी अटवी को जला देती है। यौवनन-तृणवान् प्रदेश में संचरण करने वाली कामाग्नि जिस व्यक्ति को नहीं जलाती, वह धन्य है । जो जो रात बीत रही है, वह लौट कर नहीं आती। अधर्म करने वाले की रात्रियां निष्फल चली जाती हैं। जैसे तीन वणिक् मूल पूंजी को लेकर निकले। उनमें से एक लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है। तथा एक मूल को भी गंवा कर वापिस आता है। यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए। आत्मा यथास्थित आत्मा को जानता है। धर्म आत्मसाक्षिक होता है। इस धर्म का पालन आत्मा वैसे ही करता है जैसे कि वह अपने लिए सुखकर हो । संयम सूत्र (अनाथी मुनि ने वणिक् से कहा-) 'मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है। आत्मा ही कामदुधा धेनु है और आत्मा ही नंदनवन है । ' आत्मा ही दुःख-सुख का कर्त्ता और विकर्त्ता (विनाशक) है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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