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प्रायोगिक दर्शन
४४१
तुन्भे णं आउसो अरणिसहगयस्स अगणि
कायस्स रूवं पासह ?
नो इट्ठे समट्ठे ।
अत्थि णं आउसो ! समुहस्स पारगयाइं रुवाइं ? हंता अत्थि ।
तुब्भे णं आउसो ! समुहस्स पारगयाई रुवाई पासह ?
नो इट्ठे समट्ठे ।
अत्थि णं आउसो ! देवलोगगयाई रुवाई ?
हंता अत्थि ।
तुब्भेणं आउसो ! देवलोगगयाई रुवाई पासह ? नो इट्ठे समट्ठे ।
एवामेव आउसो ! अहं वा तुब्भे वा अण्णो वा छउमत्थो जइ जो जं न जाणइ न पासइ तं सव्वं न भवति, एवं भे सुबहुए लोए न भविस्सति ।
ते अण्णउत्थिए एवं पडिभणइ, पडिभणित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविणं अभिगमेणं जाव पज्जुवासति ।
महावीर द्वारा मदुक की प्रशंसा
मदुयादी! समणे भगवं महावीरे मदुयं समणोवासगं एवं वयासी - सुगुणं मदुया ! तुमं ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहू णं मदुया ! तुमं ते अण्णउत्थि एवं वयासी, जे णं मदुया ! अट्ठं वा हे वा पसिणं वा वागरणं वा अण्णायं अदिट्ठ • अस्सुतं अमुयं अविण्णायं बहुजणमज्झे आघवेति पण्णवेति.... से णं अरहंताणं आसादणाए वट्टति, अरहंत- पण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणाए वट्टति, केवलणं आसादणा वट्टति, केवलिपण्णत्तस्स धम्मस्स आसादणा वट्टति, तं सुठु णं तुमं मदुया ! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी, साहू णं तुमं मद्द्या! ते अण्णउत्थिए एवं वयासी ।
तणं मदुए समणोवासए समणेणं भगवया महाबीरेणं एवं वृत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे ।....
अ. ३ : सम्यग्ज्ञान
हां, होती है।
आयुष्मन् ! आप अरणि में रही हुई अग्नि का रूप
देखते हैं।
नहीं।
आयुष्मन्! समुद्र के पार रूप-पदार्थ हैं ? हां, हैं ।
आयुष्मन् ! आप समुद्र के पार रूपों को देखते हैं ?
नहीं ।
आयुष्मन् ! देवलोक में रूप होते हैं ?
हां, होते हैं।
आयुष्मन् ! आप देवलोक में विद्यमान रूपों को देखते हैं ? नहीं ।
आयुष्मन् ! इसी प्रकार मैं, आप या अन्य कोई छद्मस्थ जिस पदार्थ को नहीं जानता देखता है, वह सब नहीं होता, ऐसा स्वीकार करने पर आपके जगत का बहुत बड़ा भाग नहीं होगा।
इस प्रकार अन्यतीर्थिकों के प्रश्नों को उत्तरित कर मदुक गुणशिल चैत्य में श्रमण भगवान महावीर के पास आया और विधिवत् उपासना करने लगा ।
श्रमण भगवान् महावीर ने कहा- मदुक ! तुमने अन्यतीर्थिकों से जो कहा, वह अच्छा कहा। साधु कहा। जो व्यक्ति अज्ञात (अमूर्त होने के कारण जो ज्ञात नहीं है।) अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृत और अविज्ञात अर्थ, हेतु, प्रश्न और उत्तर का बहुत व्यक्तियों के मध्य बिना जाने प्रतिपादन करता है, वह अर्हत् की आशातना करता है, अर्हत्- प्रज्ञप्त धर्म की आशातना करता है । केवली की आशातना करता है। केवली - प्रज्ञप्त धर्म की आशातना करता है, मदुक ! तुमने अन्यतीर्थिकों को जो कहा, वह अच्छा और साधु कहा ।
भगवान महावीर से यह सुन मदुक हृष्ट और तुष्ट
हुआ।