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________________ आत्मा का दर्शन ४४२ खण्ड ज्ञान के पांच प्रकार कुमारश्रमण केशी और राजा प्रदेशी २२.तए णं से पएसी राया चित्तेण सारहिणा सद्धिं राजा प्रदेशी चित्त सारथी के साथ कुमारश्रमण केशी जेणेव केसी कुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ। के पास पहुंचा। बोला-भंते! क्या तुम्हारे पास अतीन्द्रिय केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं ज्ञान है ? क्या तुम जीव को शरीर से भिन्न मानते हो? वयासी-तुब्भेणं भंते! अहोऽवहिया अण्णजीविया? तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं केशीकुमार-प्रदेशी! जैसे कोई अंकवणिक अथवा वयासी-पएसी! से जहा णामए अंकवाणिया इ वा शंखवणिक शुल्क से बचने के लिए सीधे मार्ग से होकर संखवाणिया इ वा सुकं भंसेउकामा णो सम्म पंथं नहीं जाते। इसी प्रकार तुम भी विनय के मार्ग को छोड़ पुच्छति। एवामेव पएसी! तुमं वि विणयं सम्यक् प्रकार से नहीं पूछ रहे हो। भंसेउकामो नो सम्म पुच्छसि। से णूणं तव पएसी! ममं पासित्ता अयमेयारूवे प्रदेशी! मुझे देखकर तुम्हारे मन में इस प्रकार के अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे विचार आए ये जड़ लोग जड़ की उपासना कर रहे हैं। ये समुप्पज्जित्था-जडा खलु भो! जड्ड मुंड लोग मुंड की उपासना कर रहे हैं। ये मूढ लोग मूढ पज्जुवासंति। मुंडा खलु भो! मुंडं पज्जुवासंति। की उपासना कर रहे हैं। ये अपंडित लोग अपंडित की मूढा खलु भो! मूढं पज्जुवासंति। निविण्णाणा उपासना कर रहे हैं। ये अज्ञानी लोग अज्ञानी की उपासना खलु भो! निविण्णाणं पज्जुवासंति। से केस णं कर रहे हैं। यह जड़, मुंड, मूढ, अपंडित और अज्ञानी एस पुरिसे जड्डे मुंडे मूढे अपंडिए निविण्णाणे, पुरुष कौन है ? श्री, ही से युक्त और दीप्तिमान शरीर सिरीए हिरीए उवगए, उत्तप्पसरीरे? एस णं पुरिसे वाला यह कौन है? यह क्या आहार करता है? क्या किमाहारमाहारेइ ? किं परिणामेइ ? किं खाइ ? किं परिणमन करता है? क्या खाता है ? क्या पीता है? क्या पियइ? कि दलयइ? किं पयच्छइ? जे णं एमहालियाए मणुस्सपरिसाए महया-महया सद्देणं परिषद् को ऊंचे-ऊंचे स्वर में सम्बोधित कर रहा है। मैं बूया। साए वि णं उज्जाणभूमीए नो संचाएमि सम्मं अपनी उद्यानभूमि में भी स्वतंत्रता से विचरण नहीं कर पकामं पवियरित्तए। से णूणं पएसी! अत्थे समत्थे? सकता। प्रदेशी ! क्या यह बात ठीक है? हंता! अत्थि। हां, ठीक है। तए णं से पएसी राया केसिं कुमारसमणं एवं भंते तुम्हारे पास वह कौन-सा ज्ञान एवं दर्शन है, वयासी-से केस णं भंते! तुज्झं नाणे वा दसणे वा, जिससे तुमने मेरे आंतरिक चिंतन, अभिलाषा और जेणं तुब्भं मम एयारूवं अज्झत्थियं चिंतियं पत्थियं मनोगत संकल्प को जान लिया है-देख लिया है। मणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणह-पासह ? तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं प्रदेशी! श्रमण निग्रंथों के ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्स वयासी-एवं खलु पएसी! अम्हं समणाणं हैं-आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिनिग्गंथाणं पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा- ज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। आभिणिबोहियणाणे सुयणाणे ओहिणाणे मणपज्जवणाणे केवलणाणे। से किं तं आभिणिबोहियणाणे? आभिनिबोधिकज्ञान क्या है? आभिणिबोहियणाणे चउविहे पण्णत्ते. तं जहा- आभिनिबोधिक ज्ञान के चार प्रकार प्रज्ञप्त हैं-अवग्रह,
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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