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________________ आत्मा का दर्शन २५६ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ संसार और मोक्ष ये दो तत्त्व हैं। दोनों दो दिशाओं के प्रतिनिधि हैं। मोक्ष को अभीप्सित है आत्म-सुख और संसार को अभीप्सित है दैहिक सुख। मनुष्य जब दैहिक सुख से ऊब जाता है तब वह आत्मिक सुख की ओर दौड़ता है। फिर वह संसार में नहीं रहता। शरीर सुख आत्मिक सुख के सामने नगण्य है, लेकिन जो व्यक्ति उसे ही देखता है वह मोक्ष से दूर चला जाता है। मोक्षार्थी का लक्ष्य होता है आत्मिक सुख का आविर्भाव करना। वह दैहिक सुख से निवृत्त होता है और आत्मिक सुख में प्रवृत्त । उसे शरीर से मोह नहीं होता। वह शरीर निर्वाह के लिए भोजन करता है, न कि स्वाद के लिए। शरीर-पोषण का जहां ध्येय होता है वहां मोक्ष गौण हो जाता है। और जहां शरीर मोक्ष के लिए होता है वहां सारी क्रियाएं मोक्षोचित हो जाती हैं। . इस श्लोक में शरीर-धारण या निर्वाह का एक मुख्य कारण बताया है और वह है कर्म-क्षय। कर्म-क्षय के अनेक हेतु हैं। देहधारी व्यक्ति ही धर्म-व्यवहार कर सकता है। इसी का समर्थन अगले श्लोक में किया गया है। ७. विनाहारं न देहोऽसौ, न धर्मो देहमन्तरा। निर्वाहं तेन देहस्य, कर्तुमाहार इष्यते॥ भोजन के बिना शरीर नहीं टिकता और शरीर के बिना धर्म नहीं होता, अतः शरीर का निर्वाह करने के लिए साधक भोजन करे, यह इष्ट है। ८. व्रज्याक्षुत्शान्तिसेवायैः, प्राणसन्धारणाय च। संयमाय तथा धर्मचिन्तायै मनिराहरेत॥ मुनि व्रज्या-गमनशक्ति, क्षुधाशांति, संयमी सेवा, प्राणधारण, संयम यात्रा तथा धर्मचिंतन कर सके वैसी शक्ति बनाये रखने के लिए भोजन करे। असाध्य रोग, भयंकर उपसर्ग, शरीर में विरक्ति, ब्रह्मचर्य की: रक्षा, जीव-हिंसा से विरति, नाना प्रकार के तप और कर्म के विशोधन के लिए मुनि को भोजन का परित्याग करना उचित है। ९. आतङ्के उपसर्गे च, जातायां विरतौ तनौ। - ब्रह्मचर्यस्य रक्षायै, दयायै प्राणिनां तथा॥ १०.नानारूपं तपस्तप्तं, कर्मणां शोधनाय च। आहारस्य परित्यागः, कर्तुमर्हति संयतिः॥ (युग्मम्) ॥ व्याख्या ॥ प्रस्तुत श्लोकों में भोजन करने और न करने के कारणों का उल्लेख है। भोजन करने के पांच कारण ये है१. क्षुधा को शांत करने के लिए। ४. संयम की सुरक्षा के लिए। २. सेवा करने के लिए। ५. धर्म-चिंता करने के लिए। ३. प्राणों को धारण करने के लिए। भोजन न करने के छह कारण ये हैं१. रोग हो जाने पर। ४. दया के लिए। २. शरीर के प्रति विरक्ति हो जाने पर। ५. संकल्प को दृढ़ करने के लिए। '३. ब्रह्मचर्य-पालन के लिए। ६. प्रायश्चित्त के लिए। ये सभी कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्दिष्ट हैं। साधक एकमात्र शरीर-निर्वहन करने के लिए खाता है, रस-तुष्टि के लिए नहीं। पुरुषार्थ की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन शरीर है। साधक के लिए उसकी सुरक्षा भी उतनी ही अपेक्षित है जितनी आत्मा की। शरीर के माध्यम से ही अशरीर की साधना की जाती है। __बौद्ध ग्रंथों में भी आहार करने की मर्यादा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि 'भिक्षु-क्रीड़ा, मद, मंडन या विभूषा के लिए भोजन न करे किन्तु शरीर को रखने के लिए, रोग के उपशमन के लिए तथा ब्रह्मचर्य के पालन के लिए भोजन करे।'
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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