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संबोधि.
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अ. १० : संयतचर्या
भगवान् प्राह . २. यतं चरेद् यतं तिष्ठेत्, शयीतासीत वा यतम्। भगवान् ने कहा-साधक संयमपूर्वक चले, संयमपूर्वक ठहरे, यतं भुञ्जीत भाषेत, साधकः प्रयतो भवेत्॥ संयमपूर्वक सोए, संयमपूर्वक बैठे, संयमपूर्वक खाए और
संयमपूर्वक बोले। उसे प्रत्येक कार्य में संयत होना चाहिए।
|| व्याख्या ॥ यतना का अर्थ है-जागना। जो जागता है वह पाता है और जो सोता है वह खोता है। जागरूकता प्रत्येक क्रिया में सरसता भर देती है। असावधानी सरस जीवन को भी नीरस बना देती है। भगवान् महावीर ने साधक को सचेत करते हुए कहा है-'तुम समय मात्र भी प्रमाद मत करो।' प्रमाद जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। हमारी लापरवाही हमारे लिए ही अभिशाप बनती है। कार्य को समय पर न करने से काल उसका रस पी जाता है। मनुष्य के लिए फिर अनुताप शेष. रहता है। . ३. जलमध्ये गता नौका, सर्वतो निष्परिस्रवा। जल के मध्य में खड़ी हुई नौका, जो सर्वथा छिद्ररहित हो, गच्छन्ती वाऽपि तिष्ठन्ती,परिगृह्णाति नो जलम्॥ चाहे चले या खड़ी हो, जल को ग्रहण नहीं करती। उसमें जल नहीं
भरता। ४. एवं जीवाकुले लोके, मुमुक्षुः संवृतास्रवः। इसी प्रकार जिस साधक ने आसव का निरोध कर लिया, - गच्छन् वा नाम तिष्ठन् वा, नादत्ते पापकं मलम्॥ वह इस जीवाकुल लोक में रहता हुआ, चाहे चले या खड़ा रहे,
पाप-मल को ग्रहण नहीं करता।
॥ व्याख्या॥ जो साधक अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ शुभ में प्रवृत्त हुआ है, उसका ध्येय है-प्रवृत्ति-मुक्त होना। प्रवृत्ति-मुक्त होने से पूर्व जो शरीरापेक्ष क्रिया करता है, वह कैसे पाप रहित हो, इसका उत्तर यहां दिया है। महावीर ने उसके लिए एक छोटा-सा सूत्र दिया है। वह है-यतना, जागरूकता, सचेतनता। यतना को धर्म-जननी कहा है-'जयणेव धम्म जननी'। यतना का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि आप जो क्रिया कर रहे हैं उसमें डूबे रहें। डूबने का अर्थ है-आपको अपना होश नहीं है। यतना अपने आप में बहुत गहरी है। उसका अभिप्राय है- प्रत्येक क्रिया के साथ आपको अपनी स्मृति रहे। जैसे-मैं चल रहा हूं, बैठ रहा हूं, बोल रहा हूं, लेट रहा हूं, भोजन कर रहा हूं, विचार कर रहा हूं आदि-आदि। . स्वयं की स्मृति सतत उजागर रहने से क्रिया में होने वाला प्रमाद स्वतः शांत होता चला जाएगा। साधक का आचार
के प्रति इतना सचेतन होने की आवश्यकता नहीं है जितना कि स्व-स्मरण के प्रति है। कबीर ने कहा है-यह शरीर रूपी चादर सबको मिली है, किन्तु प्रायः सभी मैली कर देते हैं। वे यतना (जतन) नहीं रखते “दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' मैंने उस चादर को बड़ी सावधानी से धारण किया अतः वैसी की वैसी छोड़ रहा हूं। यह कठिन है इसलिए कि सावधानी नहीं है। सावधानी साधना के क्षेत्र में प्रवेश का प्रथम चरण है। पाप कर्म .का प्रवेश जागरूकता में संभव नहीं है। मेघः प्राह ५. त्यक्तव्यो नाम देहोऽयं, पुरा पश्चाद् यदा कदा। मेघ बोला-प्रभो! पहले या पीछे जब कभी एक दिन इस
तत् किमर्थं हि भुञ्जीत, साधको ब्रूहि मे प्रभो! शरीर को छोड़ना है तो साधक किसलिए खाए? मुझे बताइए।
भगवान् प्राह ६. बहिस्तात् उर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदाचन। भगवान ने कहा-साधक उर्ध्वलक्षी होकर कभी भी बाह्य. पूर्वकर्मविनाशार्थ, इमं देहं समुद्धरेत्॥ विषयों की आकांक्षा न करे। केवल पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही
इस शरीर को धारण करे। १. यह जगत् जीवाकुल है, इसमें कोई अहिंसक कैसे रह सकता है ? इस संदर्भ में ये दो श्लोक (३,४) पठनीय हैं।