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________________ संबोधि. २५७ अ. १० : संयतचर्या ११.अल्पवास्मनासक्तः, वस्तून्यल्पानि संख्यया। जो मुनि अनासक्त भाव से एक या दो बार खाता है, संख्या __मात्रामल्पाञ्च भुजानो, मिताहारो भवेद् यतिः॥ में अल्प वस्तुएं और मात्रा में अल्प खाता है, वह मितभोजी है। १२.जितः स्वादो जितास्तेन, विषयाः सकलाः परे। जिसने स्वाद को जीत लिया, उसने सब विषयों को जीत रसो यस्यात्मनि प्राप्तः, स रसं जेतुमर्हति॥ लिया। जिसे आत्मा में रस-आनन्द की अनुभूति हो गई, वही पुरुष रस-इन्द्रिय-विषयों को जीत सकता है। १३.न वामाद् हनुतस्तावत्, संचारयेच्च दक्षिणम्। दक्षिणाच्च तथा वाम, आहरन् मुनिरात्मवित्॥ आत्मविद् मुनि भोजन करते समय स्वाद लेने के लिए दाएं जबड़े से बायीं ओर तथा बाएं जबड़े से दायीं ओर भोजन का संचार न करे। १४.स्वादाय विविधान् योगान्, न कुर्यात् खाद्यवस्तुषु। संयोजनां परित्यज्य, मुनिराहारमाचरेत्॥ मुनि स्वाद के लिए खाद्य-पदार्थों में विविध प्रकार के संयोग न मिलाए। इस संयोजना दोष का वर्जन कर वह भोजन करे। ॥ व्याख्या ॥ स्वाद-विजय परम-विजय है। जो व्यक्ति रसनेन्द्रिय पर विजय पा लेता है, उसके लिए अन्यान्य इन्द्रियों पर वेजय पाना इतना कठिन नहीं होता। - भूख को शांत करने के लिए व्यक्ति खाता है। भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट और अस्वादिष्ट भी होते हैं। जीभ का काम है-चखना। पदार्थ का स्पर्श पाकर जीभ जान लेती है कि यह स्वादिष्ट है या नहीं। इसे रोका नहीं जा सकता। प्रत्येक इन्द्रिय अपनी-अपनी मर्यादा में विषय का ज्ञान कराती है। उसे रोका नहीं जा सकता। किन्तु इन्द्रिय-विषयों के . पति होने वाली आसक्ति से बचा जा सकता है। यही साधना है। - इसी प्रकार स्वाद में आसक्त होने से बचना स्वाद-विजय है। इसके दो मुख्य उपाय हैं : १. भोजन करने के लक्ष्य का स्पष्ट अनुचिंतन। २. समता का अभ्यास। ये दोनों उपाय साधक को आत्माभिमुख करते हैं। जब उसे आत्मरस का स्वाद आने लगता है तब पौद्गलिक रस से उसका मन हट जाता है। . प्रस्तुत श्लोकों में स्वाद-विजय के तीन उपाय निर्दिष्ट हैं : १. आत्मरसानुभूति की ओर प्रवृत्ति। २. एक जबड़े से दूसरे जबड़े की ओर असंचरण। ३. स्वाद के लिए खाद्य-पदार्थों के मिश्रण का वर्जन। गीता में भी कहा है- विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः। रसवज रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तत। १५.अप्रमाणं न भुजीत, न भुञ्जीताप्यकारणम्। श्लाघां कुर्वन्न भुञ्जीत, निन्दन्नपि न चाहरेत्॥ मुनि मात्रा से अधिक न खाए, निष्कारण न खाए, सरस भोजन की सराहना और नीरस भोजन की निन्दा करता हआ न खाए। ॥ व्याख्या ॥ - इस श्लोक में भोजन करने का विवेक दिया गया है। आयुर्वेद में भी आहार के तीन प्रकार बताए गये -हीनाहार, मिताहार और अति आहार। मिताहार स्वास्थ्य के अनुकूल होता है। हीनाहार और अतिआहार स्वास्थ्य के प्रतिकूल होता है। यद्यपि कुछ व्यक्तियों का विश्वास है कि हीनाहार से पाचन-क्रिया ठीक होती है, पर आयुर्वेद की दृष्टि से वह सही नहीं है जैसा कि कहा गया है
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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