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समणसुत्तं
४४४. सो नाम अणसणतवो,
- जेण न इंदियहाणी,
मंगलं न चिंतेइ ।
जेण य जोगा न हायंति ॥
४४५. बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥
४४६. उवसमणो अक्खाणं,
उववासो वण्णिदो समासेण । तम्हा भुंजंता वि य,
जिदिंद्रिया होंति उववासा ॥
४४७. छट्ठट्ठम - दसम दुवालसेहिं,
तत्तो बहुतरगुणिया,
अबहुस्सुयस्स जा सोही ।
हविज्ज जिमियस्स नाणिस्स ॥
४४८. जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे । जहनेणेगसित्थाई, एवं दव्वेण उ भवे ॥ -
२४९. गोयर पमाणदायग
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• भायणणाणाविधाण जं गहणं ।
तह सणस्स गहणं,
विविधस्स य वुत्तिपरिसंखा ॥
४५०. खीर - दहि- सप्पिमाई
पाणभोयणं ।
पणीयं परिवज्जणं रसाणं तु, भणियं रस - विवज्जणं ॥
४५१. एगंतमणावा, सयणासणसेवणया,
अ. २ : मोक्षमार्ग
वास्तव में वही अनशन तप है जिससे मन में अमंगल की चिंता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता ) न हो तथा मन वचन कायरूप योगों की हानि (गिरावट ) न हो ।
इत्थीपसुविवज्जिए । विवित्तसयणासणं ॥
अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकर अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए। (क्योंकि शक्ति से अधिक उपवास करने से हानि होती है ।)
संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। अतः जितेन्द्रिय साधु भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं।
अबहुश्रुत अर्थात् अज्ञानी तपस्वी की जितनी विशुद्धि दो-चार दिनों के उपवास से होती है, उससे बहुत अधिक विशुद्धि नित्य भोजन करनेवाले ज्ञानी की होती है।
जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम से कम एक सिक्थ अर्थात् एक कण अथवा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना द्रव्यरूपेण ऊनोदरी तप है।
आहार के लिए निकलनेवाले साधु का, वह वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप है, जिसमें वह ग्रहण का प्रमाण करता है कि आज भिक्षा के लिए इतने घरों में जाऊंगा, अमुक प्रकार के दाता द्वारा दिया गया अथवा अमुक प्रकार के बर्तन में रखा गया आहार ग्रहण करूंगा, अमुक प्रकार का जैसे मांड, सत्तू आदि का भोजन मिलेगा तो करूंगा आदि-आदि।
दूध, दही, घी आदि पौष्टिक भोजन-पान आदि रसों के त्याग को रस परित्याग नामक तप कहा गया है।
एकान्त, अनापात (जहां कोई आता जाता न हो) तथा स्त्री, पशु आदि से रहित स्थान में शयन एवं आसन ग्रहण करना, विविक्त शयनासन (प्रतिसंलीनता) नामक तप है।