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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
४३६. मोत्तूण सयलजप्पमणागय
सुहमसुहवारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि,
पच्चक्खाणं हवे तस्स॥
समस्त वाचिक विकल्पों का त्याग करके तथा अनागत शुभाशुभ का निवारण करके जो साधु आत्मा को . ध्याता है, उसके प्रत्याख्यान नामक आवश्यक होता है।
४३७.णियभावं ण वि मुच्चइ,
परभावं व गेण्हए केइं। जाणदि पस्सदि सव्वं,
सोऽहं इदि चिंतए णाणी॥
जो निज-भाव को नहीं छोड़ता और किसी भी परभाव को ग्रहण नहीं करता तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, ... वह (परम-तत्त्व) 'मैं' ही हूं। आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसा चिंतन करता है।
४३८. जं किंचि मे दुच्चरितं, सव्वं तिविहेण वोसिरे।
सामाइयं तु तिविहं, करोमि सव्वं णिरायारं॥
(वह ऐसा भी विचार करता है कि-) जो कुछ भी मेरा दुश्चरित्र है, उस सबको मैं मन, वचन, कायपूर्वक छोड़ता.' हूं और निर्विकल्प होकर विविध सामायिक करता हूं।
तप सूत्र
तप सूत्र
बाह्य तप
बाबा तप ४३९. जत्थ कसायणिरोहो,
जहां कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, बंभं जिणपूयणं अणसणं च। जिनपूजन-भाव पूजा तथा अनशन (आत्मलाभ के लिए) सो सव्वो चेव तवो,
किया जाता है, वह सब तप है। विशेषकर मुग्ध अर्थात् विसेसओ मुद्धलोयंमि॥ भक्तजन यही तप करते हैं।
४४०. सो तवो दुविहो वुत्तो बाहिरब्भतरो तहा।
बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभंतरो तवो॥
तप दो प्रकार का है बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य तप छह प्रकार का है। इसी तरह आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का कहा गया है।
४४१. अणसणमूणोयरिया,
भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य, बज्झो तवो होइ॥
अनशन, अवमोदर्य (ऊनोदरिका), भिक्षाचर्या, रस. परित्याग, कायक्लेश और संलीनता (प्रतिसंलीनता)-इस तरह बाह्यतप छह प्रकार का है।
४४२. कम्माण णिज्जरलैं, आहारं परिहरेइ लीलाए।
एगादिणादिपमाणं, तस्स तवं अणसणं होदि॥
जो कर्मों की निर्जरा के लिए एक-दो दिन आदि का (यथाशक्ति) प्रमाण तय करके आहार का त्याग करता है, उसके अनशन तप होता है।
४४३. जे पयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए।
जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरियो सो छुहाहारो॥
आगम में उन्हें तपस्वी कहा है जो श्रुत (शास्त्राभ्यास) के लिए आहार का परिहार करते हैं। जो श्रुतविहीन (ज्ञान शून्य) तप है वह मात्र भूखे रहना है।