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समणसुत्तं
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४२८. जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा । तस्स सामायिगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥
४२९. उसहादिजिणवराणं,
काउण अच्चिदूण य,
४३०. दव्वे खेत्ते काले,
णामणिरुत्तिं गुणाणुकित्तिं च ।
तिसुद्धिपरिणामो थवो णेओ ।।
जिंदणगहरणजुत्तो,
४३१. आलोचणणिंदणगरह
तं भावपडिक्कमणं,
मणवचकायेण पडिक्कमणं ॥
•ाहिं अब्भुट्टिओ अकरणाए ।
पुण दव्वदो भणिअं ॥
४३२. मोत्तूण वयणरयणं,
अप्पाणं जो झायदि,
भावे य कयावराहसोहणयं ।
४३३. झाणणिलीणो साहू
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तस्स दु होदि त्ति पडिक्कमणं ।
हा दु झाणमेव हि,
२३५. जे केइ उवसग्गा,
रागादीभाववारणं किच्चा ।
परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं ।
सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमणं ॥
४३४. देवस्सियणियमादिसु, जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुणचिंतणत्तो, काउस्सग्गो तणुविसग्गो ॥
'ते सव्वे अधिआसे,
देवमाणुस - तिरिक्खऽचेदणिया ।
काउस्सग्गे ठिदो संतो ॥
अ. २ : मोक्षमार्ग
जो सर्वभूतों (स्थावर व त्रस जीवों) के प्रति समभाव रखता है, उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा जिनशासन में कहा गया है।
ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नामों की निरुक्ति तथा उनके गुणों की कीर्तन एवं अर्चा (उपासना) करके, मन, वचन, और काय की शुद्धिपूर्वक प्रणाम करना चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है।
निन्दा तथा गर्हा से युक्त साधु का मन वचन काय के द्वारा, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के व्रताचरण विषयक दोषों या अपराधों की आचार्य के समक्ष आलोचनापूर्वक शुद्धि करना प्रतिक्रमण कहलाता है।
आलोचना, निन्दा तथा गर्हा के द्वारा प्रतिक्रमण करने में तथा पुनः दोष न करने में उद्यत साधु के भावप्रतिक्रमण होता है। शेष सब (प्रतिक्रमण-पाठ आदि करना) द्रव्य - प्रतिक्रमण है।
वचन - रचना मात्र को त्यागकर जो साधु रागादि भावों को दूर कर आत्मा को ध्याता है, उसी के ( पारमार्थिक) प्रतिक्रमण होता है।
ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है। इसलिए ध्यान ही समस्त अतिचारों (दोषों) का प्रतिक्रमण है।
दिन, रात, पक्ष, मास, चातुर्मास आदि में किये जानेवाले प्रतिक्रमण आदि शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास तक अथवा उपयुक्त काल तक जिनेन्द्र भगवान् के गुणों का चिन्तन करते हुए शरीर का ममत्व त्याग देना. कायोत्सर्ग नामक आवश्यक है।
कायोत्सर्ग में स्थित साधु देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत तथा अचेतनकृत ( प्राकृतिक, आकस्मिक) समस्त उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करता है।