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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
४१९. आवासं जह इच्छसि,
अप्पसहावेसु कुणहि थिरभावं। तेण दु सामाइय-गुणं,
संपुण्णं होदि जीवस्स॥
यदि तू प्रतिक्रमण आदि आवश्यक-कर्म की इच्छा रखता है, तो अपने को आत्मस्वभाव में स्थिर कर। इससे जीव का सामायिक गुण पूर्ण होता है-उसमें समता आती है।
४२०. आवासएण हीणो,
___ पन्भट्ठो होदि चरणदो समणो। पुव्वुत्तकमेण पुणो,
तम्हा आवासयं कुज्जा॥
जो श्रमण आवश्यक-कर्म नहीं करता, वह चारित्र से . भ्रष्ट होता है। अतः पूर्वोक्त क्रम से आवश्यक अवश्य करना चाहिए।
४२१. पडिकमणपहुदिकिरियं,
कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं। तेण दु विरागचरिए,
समणो अब्भुठिदो होदि॥
प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं निश्चयनय से चारित्ररूप हैं। जो श्रमण इनको करता है वह श्रमण वीतराग-चारित्र में समुत्थित या आरूढ़ होता है।
४२२. वयणमयं पडिकमणं,
वयणमयं पच्चक्खाण णियमं च। आलोयणं वयणमयं,
तं सव्वं जाण सज्झाउं॥
(परन्तु) वचनमय प्रतिक्रमण, वचनमय प्रत्याख्यान, वचनमय नियम और वचनमय आलोचना-ये सब तो केवल स्वाध्याय हैं, (चारित्र नहीं हैं।)
४२३. जदि सक्कादि कादं जे,
पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं। सत्तिविहीणो जा जइ,
सइहणं चेव कायव्वं॥
यदि करने की शक्ति हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदि करो। इस समय यदि करने की शक्ति नहीं है तो उन पर श्रद्धा अवश्य करनी चाहिए।
४२४. सामाइयं
पडिक्कमणं
चउवीसत्थओ वंदणयं। काउस्सग्गो पच्चक्खाणं॥
सामायिक, चतुर्विशति जिन-स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-य छह आवश्यक हैं।
४२५. समभावो सामाइयं,
तणकंचण-सत्तुमित्तविसिओ ति। निरभिस्संगं चित्तं उचियपवित्तिप्पहाणं च॥
तृण और स्वर्ण में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामायिक है। उचित प्रवृत्तिप्रधान अनासक्त चित्त को भी सामायिक कहते हैं।
४२६. वयणोच्चारणकिरियं, परिचत्ता वीयरायभावेण।
जो झायदि अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स॥
जो वचन-उच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतरागभाव से आत्मा का ध्यान करता है, उसके परमसमाधि अर्थात् सामायिक होती है।
४२७. विरदो सव्वसावज्जे, तिगुत्तो पिहिदिदिओ।
तस्स सामाइगं ठाई, इदि केवलिसासणे॥
जो सर्व-सावध प्रवृत्ति से विरत है, त्रियुप्तिगुप्त है तथा जितेन्द्रिय है, उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा जिनशासन में कहा गया है।