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समणसुत्तं
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अ. २ : मोक्षमार्ग
(भावों से शुद्ध होने के कारण) वह शुद्ध है।
४१०. चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई।
आइए निक्खिवेज्जा वा,दुहओवि समिए सया।
यतना (संयम) पूर्वक प्रवृत्ति करनेवाला मुनि अपने दोनों प्रकार के उपकरणों को आंखों से देख तथा प्रमार्जन कर उठाये और रखे। (यह आदान-निक्षेप समिति है।)
४११. एगंते अच्चित्ते दूरे, गूढे विसालमविरोहे।
उच्चारादिच्चाआ, पदिठावणिया हवे समिदी॥
साधु को मल-मूत्र का विसर्जन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहां एकांत हो, हरित् (गीली) वनस्पति तथा त्रस जीवों से रहित हो, गांव आदि से दूर हो, जहां कोई देख न सके, विशाल-विस्तीर्ण हो, कोई विरोध न करता हो। यह प्रतिष्ठापना या उत्सर्ग समिति है।
४१२. संरंभसमारंभे, 'आरंभे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई॥
यतनासंपन्न (जागरूक) यति-मुनि संरम्भ, समारंभ व आरंभ में प्रवर्त्तमान मन को रोके-उसका योपन करे।
४१३. संरंभसमारंभे, आरंभे य तहेव य।
वयं पवत्तमाणं तु, नियत्तेन्ज जयं जई॥
यतनासंपन्न यति संरम्भ, समारंभ व आरंभ में प्रवर्त्तमान वचन को रोके उसका गोपन करे।
४१४. संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य।
कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई॥
यतनासंपन्न यति संरम्भ, समारंभ व आरंभ में प्रवर्त्तमान काया को रोके उसका गोपन करे।
४१५. खेतस्स वई णयरस्स,खाइया अहव होइ पायारो।
तह पावस्स गिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहस्स॥
जैसे खेत की बाड़ और नगर की खाई या प्राकार उनकी रक्षा करते हैं, वैसे ही पाप-निरोधक गुप्तियां साधु के संयम की रक्षक होती हैं।
४१६. एया पवयणमाया, जे सम्मं आयरे मुणी।
से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए॥
जो मुनि इन आठ प्रवचन-माताओं का सम्यक् आचरण करता है, वह ज्ञानी संसार से शीघ्र मुक्त हो जाता है।
आवश्यक सूत्र
आवश्यक सूत्र ४१७. एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं। . तं दढ करण निमित्तं,पडिक्कमणादी पवक्खामि॥
इस प्रकार के भेद-ज्ञान का अभ्यास हो जाने पर जीव माध्यस्थ भावयुक्त हो जाता है और इससे चारित्र होता है। इसी को दृढ़ करने के लिए प्रतिक्रमण आदि (षट् आवश्यक क्रियाओं) का कथन करता हूं।
४१८. परिचत्ता परभाव,
अप्पाणं झादि णिम्मल-सहावं। अप्पवसो सो होदि हु,
तस्स दुकम्म भणंति आवासं॥
पर-भाव का त्याग करके निर्मल-स्वभावी आत्मा का ध्याता आत्मवशी होता है। उसके कर्म को आवश्यक कहा जाता है।