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________________ आत्मा का दर्शन ७०२ खण्ड-५ ४०१. तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी। सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो॥ इसी प्रकार परुष और महान् जीव-वध करनेवाली सत्य भाषा भी न बोले, क्योंकि इससे पाप कर्म का बंध होता है। ४०२. तहेव काणं काणे त्ति. पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगी त्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए॥ इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक को नपुंसक रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे। मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं। __ अयंपिरमणब्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं॥ आत्मवान् पुरुष दृष्ट, परिमित, असंदिग्ध, प्रतिपूर्ण, व्यक्त, परिचित, वाचालता-रहित और उद्वेग (भय या क्षोभ) रहित भाषा बोले। ४०४. उग्गम-उप्पादण-एसणेहिं, पिंडं च उवधि सज्जं वा। सोधंतस्स य मुणिणो, पिरसुज्झइ एसणा समिदी॥ उद्गम-दोष', उत्पादन-दोष और एषणा दोषों से रहित भोजन उपधि और शय्या (वसति) आदि का विवेक करनेवाले मुनि के एषणा-समिति शुद्ध होती है। ४०५. दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहा दाई मुहा जीवी, दोवि गच्छंति सोग्गइं॥ मुधादायी (प्रतिफल पाने की आशंसा-रहित) दुर्लभ हैं और मुधाजीवी (प्रतिफल देने की आशंका-रहित) भी दुर्लभ हैं। मुधादायी और मुधाजीवी दोनों ही सुगति को प्राप्त होते हैं। ४०६. ण बलाउ-साउअट्ठ, ण सरीरस्सुवचयट्ठ तेजठं। णाणट्ठ-संजमहें झाणहें चेव भुंजेज्जा॥ साधक को न तो बल या आयु बढाने के लिए आहार करना चाहिए, न स्वाद के लिए और न शरीर के उपचय या तेज के लिए। ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार करना चाहिए। ४०७-४०८. जहा दुमस्स पुप्फेसु,भमरो आवियइ रसं। ण य पुप्पं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं॥ एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो। विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया॥ (युग्मम्) जैसे भ्रमर पुष्पों को तनिक भी पीड़ा पहुंचाये बिना रस ग्रहण करता है और अपने को तृप्त करता है, वैसे ही लोक में विचरण करनेवाले बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण दाता को किसी भी प्रकार का कष्ट दिए बिना उसके द्वारा दिया गया प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। यही उनकी एषणा समिति है। ४०९. आहाकम्म-परिणओ, फासुभोई वि बंधओ होई। सुद्धं गवेसमाणो, आहाकम्मे वि सो सुद्धो॥ यदि प्रासुक-भोजी साधु आधाकर्म दोष से परिणत भोजन करता है तो वह दोष का भागी हो जाता है। किन्तु यदि वह सभी जीवों की गवेषणा कर शुद्ध जानकर कदाचित् आधाकर्म से युक्त भोजन कर भी लेता है तो कहते हैं। आहार की गवैषणा के समय होने वाले दोष एषणा-दोष कहलाते हैं। १. आहार बनाने में होनेवाले दोषों को उद्गमदोष कहते हैं। आहार-ग्रहण करने में होनेवाले दोषों को उत्पादनदोष
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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