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समणसुत्तं
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अ. २ : मोक्षमार्ग ३९३. पउमिणि-पत्तं व जहा,
जैसे स्नेहगुण से युक्त कमलिनी का पत्र जल से उदयेण ण लिप्पदि सिणेह-गुण-जुत्तं। लिप्त नहीं होता, वैसे ही समितिपूर्वक जीवों के बीच तह समिदीहिंण लिप्पा,
विचरण करनेवाला साधु पाप से लिस नहीं होता। साधु काएसु इरियंतो॥
३९४. जयणा उ धम्म-जणणी,
जयणा धम्मस्स पालणी चेव। तब्बुढिकरी जयणा,
एगंत-सुहावहा जयणा॥
यतना (अप्रमत्त चर्या) धर्म की जननी है। यतना धर्म की रक्षिका है। यतना धर्म को बढाती है। यतना एकांत सुखावह है।
३९५. जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। . जयं भुंजतो भासतो, पावं कर्म न बंधइ॥
समिति
यतना (संयम) पूर्वक चलने, यतनापूर्वक रहने, यतनापूर्वक बैठने, यतनापूर्वक सोने, यतनापूर्वक खाने
और यतनापूर्वक बोलने वाला साधु पाप-कर्म का बंध नहीं करता।
समिति कार्यवश दिन में प्रासुक (जीव-रहित) मार्ग से युगमात्र (शरीर-प्रमाण) भूमि को आगे देखते हुए, जीवों की विराधना न करते हुए गमन करना ईर्या-समिति है।
३९६. फासुय-मग्गेण दिवा जुगंतर-प्पेहिणा सकज्जेण। __ जंतूण परिहरते-णिरिया-समिदी हवे गमणं॥
३९७. इन्दियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा।
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए॥
इन्द्रियों के विषय तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय का वर्जन कर केवल गमन-क्रिया में ही तन्मय हो, उसी को प्रमुख बनाकर उपयोगपूर्वक चलना चाहिए।
३९८. तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्ठाए समागया।
त उज्जु न गच्छेज्जा, जयमेव परक्कमे॥
इसी प्रकार नाना प्रकार के प्राणी (पशु-पक्षी आदि) भोजन के निमित्त एकत्रित हों, उनके सम्मुख न जाए। उन्हें त्रास न देता हुआ यत्नापूर्वक जाए।
३९९. पेसुण्ण-हासकक्कस
परणिंदप्पप्पसंसा-विकहादी। .. वन्मित्ता सपर-हियं,
भासा-सामिदी हवे कहणं॥
पैशून्य (चुगली) हास्य, कर्कश-वचन, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, विकथा का वर्जन कर स्व-पर हितकारी वचन बोलना प्रतिपूर्ण भाषा समिति है।
१००. न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरढं न मम्मयं।
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा॥
भाषा-समित पुरुष किसी के पूछने पर भी अपने, पराए अथवा दोनों के प्रयोजन के लिए अथवा अकारण ही सावध न बोले, निरर्थक न बोले और मर्मभेदी वचन न बोले।